नई पीढ़ी के बच्चे जब भी कोई ऐसा काम करते हैं, जो पुराने लोग नहीं कर चुके हों या जिन्हें वे पसंद न करते हों ये बुजुर्ग उन्हें समझाने पर तुल जाते हैं। मैंने देखा है कि इसके लिए कई बार पुराने लोग शास्त्रों का सहारा लेते हैं। कहते हैं कि रामायण में यह लिखा है, बाइबल यह कहती है और कुरान में ऐसे समझाया है। ये प्रमाण इन बच्चों को प्रभावित कर दें, जरूरी नहीं है। यह सही है कि ग्रंथ में लिखी बातों के प्रति इस धरती पर असीम श्रद्धा है।
लिखने वाले महापुरुषों ने इस देश, काल, परिस्थिति में जो देखा, समझा और अनुभूत किया वही पृष्ठों पर उतर आया।वक्त बदला तो समझ भी बदली। जीवनशैली की आवश्यकताएं वैसी नहीं रही। इसीलिए लोग शास्त्रों के शब्दों के भीतर जीवन उपयोगी बातें ढूंढऩे लगे। शब्दों की भरमार होने के कारण और समय न होने से लोगों ने इस क्रिया को भी छोड़ दिया। फिर आजकल का समय तो ऐसा है कि कागज का प्रमाण सत्य से बहुत दूर हो गया। सभी जानते हैं कि अवकाश लेना हो तो बीमारी का सर्टिफिकेट लगा दो।
गलती से डेथ सर्टिफिकेट अगर दे दिया जाए और आदमी जीवित रह जाए तो उसे खुद को जिंदा साबित करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि कागज बोल रहा है। हालांकि, लोग कागज के गोलमाल को जानते हैं और यही मानसिकता धीरे-धीरे शास्त्रों के शब्दों के प्रति भी आ जाती है। लोग इन्हें फर्जी सर्टिफिकेट मानने लगे हैं। इसीलिए शास्त्रों के शब्दों में जो अभिव्यक्ति हुई है उसको सतह पर नहीं पकड़ा जा सकता। थोड़ा गहराई में पकड़ा कि ये शब्द पार लगने के लिए नाव बन सकते हैं।
लिखने वाले महापुरुषों ने इस देश, काल, परिस्थिति में जो देखा, समझा और अनुभूत किया वही पृष्ठों पर उतर आया।वक्त बदला तो समझ भी बदली। जीवनशैली की आवश्यकताएं वैसी नहीं रही। इसीलिए लोग शास्त्रों के शब्दों के भीतर जीवन उपयोगी बातें ढूंढऩे लगे। शब्दों की भरमार होने के कारण और समय न होने से लोगों ने इस क्रिया को भी छोड़ दिया। फिर आजकल का समय तो ऐसा है कि कागज का प्रमाण सत्य से बहुत दूर हो गया। सभी जानते हैं कि अवकाश लेना हो तो बीमारी का सर्टिफिकेट लगा दो।
गलती से डेथ सर्टिफिकेट अगर दे दिया जाए और आदमी जीवित रह जाए तो उसे खुद को जिंदा साबित करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि कागज बोल रहा है। हालांकि, लोग कागज के गोलमाल को जानते हैं और यही मानसिकता धीरे-धीरे शास्त्रों के शब्दों के प्रति भी आ जाती है। लोग इन्हें फर्जी सर्टिफिकेट मानने लगे हैं। इसीलिए शास्त्रों के शब्दों में जो अभिव्यक्ति हुई है उसको सतह पर नहीं पकड़ा जा सकता। थोड़ा गहराई में पकड़ा कि ये शब्द पार लगने के लिए नाव बन सकते हैं।
खूब मेहनत के बाद कुछ देर शांत हो जाना चाहिए
इन दिनों लोगों का समय भारी व्यस्तता में बीत रह है। कुछ लोग कमाने में जुटे हैं तो कुछ कामाया हुआ ठिकाने लगाने में। अब जिनके पास खूब धन आ गया यदि वो भी अशांत होंगे और जिनका गया वो भी शांत नहीं होंगे तो बेकार रही सारी मारा-मारी। जरा इस पर ध्यान दीजिए बचाया क्या हमने?
हमारी बचत सुख के साथ शांति होना चाहिए। जब हमारे भीतर मानसिक असंतुलन और उत्तेजना आती है तो व्यक्तित्व में अधीरता आ जाती है। अधिक अधीरता हृदय को संकीर्ण करती है और कुछ लोगों को मानसिक बालपन आ जाता है। इसलिए इस समय खूब मेहनत के बाद थोड़ा थम जाएं, शांत हो जाएं।
इसके लिए एक तरीका अपनाएं, जो होना था वह हो गया, अब जो हो रहा है वह भी होता रहेगा, बस खुद को बीच में से हटा लें। अपनी ही रुकावट को खुद ही खत्म कर दें। मैंने किया, मैं कर दूंगा यहीं से अशांति शुरू होती है। हमारा 'मैं' ही हमसे भिड़ जाता है। एक कुत्ता पानी में झांक रहा था। अपनी ही परछाई दिखी तो भोंकने लगा।
जाहिर है परछाई भोंक रही थी और कुत्ता समझ रहा था सामने वाला मुझ पर भोंक रहा है। वह डरा भी और गुस्से में भी आया। पानी में अपनी ही परछाई पर कूद गया। बस, परछाई गायब हो गई। इसी तरह हम भी अपनी ही छाया से झगड़ रहे हैं। एक बार भीतर कूद जाएंगे तो परछाई मिट जाएगी और हम ही रह जाएंगे। परछाई शब्द पर यदि ध्यान दें तो ये हमारी छाया के लिए कहा जाता है। लेकिन इसमें च्च्परज्ज् शब्द आया है यानी दूसरे की छाया। होती हमारी ही छाया है पर नाम है परछाई।
अपना ही शेडो दूसरे के होने का भान कराती है और हम उससे उलझ जाते हैं। खुद से लड़ते रहो, हाथ कुछ नहीं लगेगा। बीच में से खुद को हटा लो, शांत होना आसान हो जाएगा। दिवाली की धूम के बाद आइए इस शून्य का अभ्यास करें।
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