देवी जी कहने लगीं, कर घूँघट की आड़ हमको दिखलाए नहीं, तुमने कभी पहाड़ तुमने कभी पहाड़, हाय तकदीर हमारी इससे तो अच्छा, मैं नर होती, तुम नारी कहँ ‘काका’ कविराय, जोश तब हमको आया मानचित्र भारत का लाकर उन्हें दिखाया देखो इसमें ध्यान से, हल हो गया सवाल यह शिमला, यह मसूरी, यह है नैनीताल यह है नैनीताल, कहो घर बैठे-बैठे- दिखला दिए पहाड़, बहादुर हैं हम कैसे ? कहँ ‘काका’ कवि, चाय पिओ औ’ बिस्कुट कुतरो पहाड़ क्या हैं, उतरो, चढ़ो, चढ़ो, फिर उतरो यह सुनकर वे हो गईं लड़ने को तैयार मेरे बटुए में पड़े, तुमसे मर्द हज़ार तुमसे मर्द हज़ार, मुझे समझा है बच्ची ? बहका लोगे कविता गढ़कर झूठी-सच्ची ? कहँ ‘काका’ भयभीत हुए हम उनसे ऐसे अपराधी हो कोतवाल के सम्मुख जैसे आगा-पीछा देखकर करके सोच-विचार हमने उनके सामने डाल दिए हथियार डाल दिए हथियार, आज्ञा सिर पर धारी चले मसूरी, रात्रि देहरादून गुजारी कहँ ‘काका’, कविराय, रात-भर पड़ी नहीं कल चूस गए सब ख़ून देहरादूनी खटमल सुबह मसूरी के लिए बस में हुए सवार खाई-खंदक देखकर, चढ़ने लगा बुखार चढ़ने लगा बुखार, ले रहीं वे उबकाई नींबू-चूरन-चटनी कुछ भी काम न आई ...