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जब मेहनत से कमाया धन खर्च करें तो इन बातों का ध्यान जरूर रखें

हमारा देश साधना प्रधान देश है। हम सर्वधर्म में जीते हैं। धर्म में सत्संग का बड़ा महत्व है इस कारण हमारे साधनारत लोग ज्यादातर मौकों पर साधना और सत्संग पर ही टिके रहे। वे भूल ही गए कि इसकी श्रेष्ठतम परिणति सेवा होना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति की विशेषता होना चाहिए कि वह दूसरों की पीड़ा को समझे। परपीड़ा न समझना एक तरह से अधर्म ही है। असल में हमने दूसरे की पीड़ा, दु:ख मिटाने के लिए जो सेवा हाथ में ली थी वह कर्मकाण्ड जैसी ही रही। लोगों ने सेवा को समय बिताने का साधन और अपने अहंकार के पोषण का माध्यम बना लिया।

हम तो अन्दर से अस्वस्थ हैं और दूसरों की बीमारी मिटाने में लग जाएं तो सेवा भी ढोंग, बोझ होगी। लेकिन जो सेवा, साधना और सत्संग से होकर गुजरेगी वह पहले हमें भीतर से स्वस्थ करेगी तब बाहर सचमुच सेवा घटेगी। सेवा का संबंध धन से भी जुड़ता है। सच्चे सत्संगी धन को अलग दृष्टि से देखेंगे। अध्यात्म ने धन से परहेज नहीं बताया। उसका जोर है धन कमाया जाए, लेकिन सही समय पर, जरूरत के साथ खर्च की समझ जरूर हो। कमाएं विवेक पूर्वक और खर्च करें विचार पूर्वक।
 
धन तो अब इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि केवल सुख सामग्रियों के काम ही नहीं आता बल्कि अब तो लोग शक्ति और योग्यता भी इसी से खरीद रहे हैं यही खतरनाक है। इसी बात ने शार्टकट से धन कमाने की वृत्ति बढ़ा दी। लक्ष्मी ने कभी सोचा भी नहीं था कि इतने जामे लोग उन्हें पहना देंगे। भृष्टाचार, अपहरण, हिंसा, लूट, चोरी, बेईमानी, चोरी, डकैती, जुआ, सट्टा और शोषण की भी पगडंडिया, सुरंग, राजपथ बना डाले लोगों ने धन आने-जाने के। इसलिए पहले सेवा को अध्यात्म से जोड़ें, फिर धन से जोड़ें तब पवित्र सेवाभाव कई गलत बातों को जीवन में रोक देगा।
 

धन की कामना सभी को है, धन के मूल में लोभ रहता है
 
आज के बच्चे पूछते हैं आखिर सत्य क्या देता है? सत्य का पहला फल है, धन की प्राप्ति। धन की कामना सभी को है। अधिकांशत: धन के मूल में लोभ रहता है। अति महत्वाकांक्षा, वासनाएं ये सब लोभ के बायप्रॉडक्ट हैं। लोभ भविष्य पर निशाना रखता है। कल जो आने वाला है उसके लिए लोभ मनुष्य को लगभग बीमार जैसा कर देता है, लेकिन जीवन में जिसने सत्य जान लिया उसका भविष्य, आने वाला कल, संवर जाता है। दूसरा फल है, बंधन मुक्ति। संपत्ति और परिवार छोड़ने से बंधन मुक्ति नहीं आएगी।
 
असल में एक सम्पत्ति हमारे भीतर है जो हमें जन्म से परमात्मा ने दी है। हम उसे भूल गए हैं। यह वह दौलत है जो जन्म से पहले हमारे साथ भी और मृत्यु के बाद भी हमारे साथ रहेगी। यह हमारी निजी धरोहर है, रत्तीभर भी उधार नहीं। इसको कहते हैं जो हमारा अपना होना है हमारी आत्मा। तीसरा फल है भय मुक्त होना। बड़े-बड़े साधन होने के बाद भी आदमी भयभीत है। बड़ी सुरक्षा व्यवस्था है, बहुत धन है, बहुत बाहुबल है, बहुत लोग हैं साथ में उनके, इसके बाद भी आदमी भयभीत है। हमें निर्भय कोई नहीं कर सकता दुनिया में। धन के साथ यदि सत्य है तो ही हम निर्भय हो सकेंगे। चौथा फल है वैकुण्ठ की प्राप्ति होना। वैकुण्ठ का अर्थ है जहाँ हम पूरी तरह परमात्मा को समर्पित हो गए। जिस क्षण स्वयं को उसे दे दिया बस वहीं वैकुण्ठ घट गया। उसकी परम निकटता का नाम वैकुण्ठ है। संसार में अर्थहीन अस्तित्व रहता है परन्तु भगवान के आते ही इसमें अर्थ आ जाता है और संसार यहीं अभी का अभी वैकुण्ठ में बदल जाता है। इसलिए जीवन के हर आचरण में सत्य बना रहना चाहिए।

ऐसे समय पर होती है धैर्य की परीक्षा
 
हम जितने अधीर होंगे उतने ही दीन होते जाएंगे। धैर्य की परीक्षा विपरीत समय पर होती है। अधीरता हमारी शक्ति को खा जाती है। यही शक्ति बल्कि इससे आधी ताकत भी हम समस्या को निपटाने में लगा दें तो परिणाम ज्यादा अच्छे मिल जाएंगे। आदमी सर्वाधिक परेशान तीन तरह की स्थितियों से होता है। मृत्यु, वृद्धावस्था और विपत्ति। फकीरों ने कहा है इन सबको आना ही है, कोई नहीं बचेगा, लेकिन जो ज्ञानी होगा वो इन्हें ज्ञान के सहारे काट देगा और अज्ञानी ऐसे हालात में रोएगा, परेशान रहेगा। यहां ज्ञान का मतलब है कि हमें यह समझ होना चाहिए कि पूर्वजन्म के भोग तो भोगना ही पड़ते हैं। यह शरीर जाति, आयु और भोग के परिणाम पाता ही है। जिन्हें जीवन में धैर्य उतारना हो वे सबसे पहले समय के प्रति जागरुक हो जाएं। जब भी बुरा समय आए महसूस करें कि सुख में समय छोटा और दु:ख में बड़ा लगता है, जबकि समय होता उतना ही है।
 
अध्यात्म ने एक नई स्थिति दी है। न दु:ख, न सुख इन दोनों से पार जाने की कोशिश करें। इसे महासुख कहा गया है। इस स्थिति में समय विलीन ही हो जाता है। यानी थोड़ा ध्यान में उतर जाएं। जितना ध्यान में उतरेंगे उतना ही धैर्य के निकट जाएंगे। धैर्य यानी थोड़ा रूक जाना। हालात हिला रहे होंगे और धैर्य आपको थोड़ा स्थिर करेगा। फिर स्थितियों में समस्या स्पष्ट दिखने लगती है। उसके समाधान के उत्तर स्वयं से ही प्राप्त होने लगेंगे। जिनका अहंकार प्रबल है उन्हें धैर्य रखने में दिक्कत भी आएगी। ध्यान, अहंकार को गलाता है। अहंकार का एक स्वभाव यह भी होता है कि वह अपने ही सवाल उछालता रहता है। इस कारण सही उत्तर सामने होते हुए भी हम उन्हें पा नहीं पाते। इसलिए जब भी हालात विपरीत हो जीवन में धैर्य साधें और धैर्य पाने के लिए उस समय ध्यान में उतरने का अभ्यास बनाए रखें।

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