गृहस्थी कौन सी सबसे ज्यादा सुखी मानी जाती है। इस बात को लेकर लंबी बहस हो सकती है लेकिन सच तो यही है कि गृहस्थी वो ही सबसे ज्यादा सुखी है जहां प्रेम, त्याग, समर्पण, संतुष्टि और संस्कार ये पांच तत्व मौजूद हों। इनके बिना दाम्पत्य या गृहस्थी का अस्तित्व ही संभव नहीं है। यदि इन पांच तत्वों में से कोई एक भी अगर नहीं हो तो रिश्ता फिर रिश्ता नहीं रह जाता, महज एक समझौता बन जाता है। गृहस्थी कोई समझौता नहीं हो सकती। इसमें मानवीय भावों की उपस्थिति अनिवार्य है।
आइए, भागवत में चलते हैं, देखिए महान राजा हरिश्चंद्र के चरित्र और उनकी पत्नी तारामति के साथ उनके दाम्पत्य को। हरिश्चंद्र अपने सत्य भाषण के कारण प्रसिद्ध थे। वे हमेशा सत्य बोलते थे, उनके इस सत्यव्रत में उनकी पत्नी तारामति भी पूरा सहयोग करती थी। वो ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न नहीं होने देती जिससे सत्यव्रत टूटे।
अब आइए, देखें उनके दाम्पत्य में ये पांच तत्व कैसे कार्य कर रहे थे। पहला तत्व प्रेम, हरिश्चंद्र और तारामति के दाम्पत्य का पहला आधार प्रेम था। हरिश्चंद्र, तारामति से इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने अपने समकालीन राजाओं की तरह कभी कोई दूसरा विवाह नहीं किया। एक पत्नीव्रत का पालन किया। तारामति के लिए पति ही सबकुछ थे, पति के कहने पर उसने सारे सुख और राजमहल छोड़कर खुद को दासी का रूप दे दिया।
ये उनके बीच समर्पण और त्याग की भावना थी। दोनों ने एक दूसरे से कभी किसी बात को लेकर शिकायत नहीं की। जीवन में जो मिला उसे भाग्य समझकर स्वीकार किया। दोनों ने यहीं गुण अपने पुत्र में भी दिए। प्रेम, समर्पण, त्याग, संतुष्टि और संस्कार पांचों भाव उनके दाम्पत्य में, उनकी गृहस्थी में थे, इसलिए राज पाठ खोने के बाद भी, वे अपना धर्म निभाते रहे, और इसी के बल पर एक दिन इसे फिर पा भी लिया।
जो हो उसे स्वीकार करें, अशांति घटेगी
हमारे चिंतन और कर्म के बीच में एक ब्रिज होता है, जिसको योजना कहेंगे। बिना प्लानिंग के कोई काम न किया जाए यह आदर्श वाक्य है। कई संस्थान तो केवल प्लानिंग पर ही काम करते हैं। इसके लिए बड़ी-बड़ी एजेंसियां बन गई हैं। उनमें लक्ष्य, प्रोडक्ट, मार्केट, ग्राहक, हानि-लाभ की दृष्टि से सोचा जाता है। जो अच्छे योजनाकार गहराई में जाकर योजना बनाते हैं। ऐसे लोग केवल आंकड़ों पर न टिककर फिलॉसफी पर भी काम करते हैं।
हमारे चिंतन और कर्म के बीच में एक ब्रिज होता है, जिसको योजना कहेंगे। बिना प्लानिंग के कोई काम न किया जाए यह आदर्श वाक्य है। कई संस्थान तो केवल प्लानिंग पर ही काम करते हैं। इसके लिए बड़ी-बड़ी एजेंसियां बन गई हैं। उनमें लक्ष्य, प्रोडक्ट, मार्केट, ग्राहक, हानि-लाभ की दृष्टि से सोचा जाता है। जो अच्छे योजनाकार गहराई में जाकर योजना बनाते हैं। ऐसे लोग केवल आंकड़ों पर न टिककर फिलॉसफी पर भी काम करते हैं।
शुरुआत यह रहती है कि प्लानिंग की एप्रोच पॉजीटिव रहे। मुद्दों से बिलकुल न भटका जाए। देश-काल-परस्थिति की दृष्टि से क्रियान्वयन किया जाए, क्योंकि चिंतन सही रूप से कर्म में तभी बदलता है, जब योजना ठीक हो। हर प्रोजेक्ट की योजना अलग-अलग होती है, लेकिन मनुष्य के जीवन की योजना सबके लिए एक जैसी होगी। हम अपने बारे में जब योजना बनाएं तो पहली बात यह ध्यान रखें कि लोग हमारा उपयोग तो करें, लेकिन दुरुपयोग न होने दें।काम करने में ऊर्जा कहां से आएगी, बाहर की नहीं, भीतर की। इस पर भी ध्यान रखें।
बाहर जो पॉजीटिविटी लानी है उसके लिए भीतर तैयारी कैसे की जाए। जैसे स्कूली बच्चा होमवर्क करता है, जीवन की योजना बनाते समय वैसे हो जाएं। अध्यात्म कहता है प्रकृति में कुछ चीजें होकर रहती हैं। जो उन्हें स्वीकार करता है। उससे कम अशांति होती है। इस भाव को अपने भीतर जाग्रत करें और फिर जीवन की योजना बनाएं। इससे योजना अमल में लाने में संघर्ष कम होगा।
विचार शून्य सांस से मिलती है शांति
हम इस बात के लिए काफी सजग रहते हैं कि बाहर से हमारे शरीर को नुकसान न हो। धूप से सावधानी रखते हैं कि सन बर्न न हो जाए। सर्दी में गर्म कपड़े पहनते हैं ताकि शीत न लग जाए। हालांकि, ऊपर से व्यवस्थित होने के बाद भी बहुत सारे लोग भीतर से अशांत पाए जाते हैं।
चूंकि हम अपने समय और ऊर्जा का बड़ा हिस्सा बाहरी व्यवस्थाओं को ठीक करने में लगा देते हैं, इसलिए जान ही नहीं पाते कि एक महत्वपूर्ण इंतजाम भीतर से भी किया जाना है, जिसका संबंध शांति और स्वास्थ्य दोनों से है। अपने रोज के जीवन में एक सावधानी और रखिए। वह सावधानी है अपनी सांस के प्रति सजगता। ऐसा कहने पर ज्यादातर लोग इसे योग से जोड़ लेते हैं या फिलॉसफी की बात मान लेते हैं। दरअसल, हमें इस विज्ञान को समझना पड़ेगा। शांति के लिए तीन बातों के प्रति थोड़ा जागरूक हो जाएं।
हमारी जीवनशैली में पहला प्रभाव डालता है प्रदूषित वातावरण। इसके बाद हमारा भोजन और तीसरा महत्वपूर्ण दबाव होता है विचारों का। वैज्ञानिकों का कहना है प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में प्रतिदिन 60 हजार विचार आते-जाते हैं। विचारों को लाने-ले जाने का काम सांस करती है। इसी के कारण मनुष्य अपने फेफड़ों का 50 प्रतिशत से भी कम उपयोग कर पाता है। फलस्वरूप पूरे शरीर को ठीक से प्राण-वायु नहीं मिल पाती। 24 घंटे में कुछ समय विचार-शून्य सांस लीजिए तो प्राण-वायु पूरे शरीर में ठीक से वितरित हो जाएगी। फिर आपको शांत होने से कोई नहीं रोक सकता।
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