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भगवान संदेश वाहक है और धर्मग्रंथ उनके संदेश

भगवान कृष्ण ने 18 अध्याय का उपदेश देने में अपना वक्त क्यों जाया किया। अर्जुन के हर सवाल का जवाब देने में? आखिर अर्जुन को धर्मयुद्ध के लिए समझाने-बुझाने, मनाने, राजी करने की क्या जरूरत थी? भगवद् गीता की जरूरत ही क्या थी? कृष्ण को तो अर्जुन से बस यह कहना चाहिए था, 'मेरे तीन चक्कर लगाओ, थोड़ा घी और दूध चढ़ाओ, देह पर चंदन का लेप लगाओ, मेरे चरणों पर लेट जाओ, चार बार साष्टांग प्रणाम करो और धनुष-बाण उठाकर युद्ध के मैदान पर कूद पड़ो... तुम्हारी जीत तय है।' जरा इस बारे में सोचें कि आखिर अर्जुन को इतना संघर्ष क्यों करना पड़ा? उनके लिए क्या संभव नहीं था? कृष्ण सिर्फ एक नजर से उन सभी का सफाया कर सकते थे, जो धर्मयुद्ध में उनके विरुद्ध मैदान पर आ धमके थे।
 
जरा सोचें: यदि ईश्वर की पूजा-अर्चना ही पर्याप्त है तब बाइबिल क्यों है? कुरान क्यों है? भगवद् गीता क्यों है? किसी धर्मग्रंथ की जरूरत क्यों है? यदि हर रविवार चर्च में जाना और प्रभु ईशु पर भरोसा जताना ही काफी है तो फिर ईशु ने 'क्या करें और क्या नहीं करें' का उपदेश देने में अपने तीन साल क्यों खराब किए, जो बाद में बाइबिल के रूप में सामने आया? यदि दिन में पांच बार नमाज अता करना ही काफी है तो फिर कुरान की तमाम बातें क्यों है?
 
धर्मग्रंथ की अनकही सीख- यह कॉलम किसी धर्मग्रंथ की समीक्षा या उसकी कमियां निकालने की कोशिश नहीं है। किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने का प्रयास भी नहीं है। यह तो अस्पष्ट सीख को स्पष्ट करने की ईमानदार कोशिश भर है। अनकहा कहने का प्रयास। सभी धर्मों के बीच सौहार्द बढ़ाने के लिए सच्चा आध्यात्मिक मूल्यांकन।
 

अनकहा संदेश:
 
यदि भगवान संदेश वाहक है तो धर्मग्रंथ उसके संदेश हैं। संदेश वाहक में ईश्वरीय प्रभाव तभी आ सकता है जब संदेशों को पूरी ईमानदारी से जिया जाए। यह व्यर्थ है कि हम संदेश को नजरअंदाज करें और ईश्वर से मदद के लिए प्रार्थना करें। वास्तव में संदेश नजरअंदाज कर हम संदेशवाहक को ही असहाय बना देते हैं। भले ही आप गणित के शिक्षक के पुत्र हों लेकिन यदि 2+2 = 3 लिखेंगे तो गलत हैं। दूसरी ओर, यदि आप परीक्षक के बारे में कुछ भी नहीं जानते और 2+2 = 4 लिखते हैं तो सही हैं।
 
दरअसल, हम यह मान बैठते हैं कि हम जो पूजा-अर्चना करते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं, उन सबके बदले भगवान हमारी रक्षा या मदद करेगा। हम ईश्वर को कई प्रकार से रिश्वत की पेशकश करते हैं ताकि वह हमारा कोई काम जल्दी करा दे या किसी अवसर को हमारे पक्ष में कर दे या हमारे किसी प्रिय की उम्र लंबी कर दे, आदि... लेकिन हम ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, कर्म, अहिंसा, प्रेम और ऐसे ही सद्गुणों को बड़ी आसानी से नजरअंदाज करते हैं, जो सभी जीवन-मूल्य हैं।

सिर्फ हिंदू होने भर से कोई कृष्ण की कृपा का पात्र नहीं हो सकता। लेकिन इंसान होने के नाते कोई भी भगवद् गीता का अनुसरण करके, उसमें बताए मूल्यों को आत्मसात करके ईश्वर की कृपा पा सकता है। इसी तरह खुद को ईसाई कहने और 'क्रास' पहनने भर से प्रभु ईशु का आशीर्वाद नहीं मिलता। इसकी बजाय कोई भी व्यक्ति जो बाइबिल के उपदेश आत्मसात कर और उसके बताए रास्तों पर चलकर भगवत्कृपा का पात्र हो सकता है।
 
सिर्फ मूल्यों को समझना काफी नहीं है... आपको उन पर अमल भी करना चाहिए। संदेशवाहक के प्रति समर्पण का भाव जरूर रखें, लेकिन इसके साथ-साथ संदेश का मान भी रखें, इस पर अमल करें। ईश्वर सिर्फ विश्वास का नहीं, बल्कि जुड़ाव का विषय है... उसके संदेशों से जुड़ाव और उस पर अमल का विषय है... इसे ही दूसरे शब्दों में जीवन-दर्शन कहा गया है।
 

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