राजस्थान चुनाव की दस्तक के साथ हवा में उछल रहे नारों-जुमलों ने एक बार फिर मधु लिमये की बात याद दिला दी- 'जनता उस भेड़ की तरह है जिसकी चमड़ी पर से हम राजनीतिक दल वोटों की ऊन काटते हैं। ऊन काटे तब तक तो ठीक, लेकिन कुछ दल चमड़ी तक काट लेते हैं।' यहां भी राजनीतिक कुचक्र से बचाने की भावना भले ही हो, लेकिन मतदाता को भेड़ कहा गया। छह दशक की चुनावी यात्रा में यह साफ हो गया है कि राजनीतिक दल वोटर को क्या मानते हैं। जीत की जुगत के लिए हर बार बुनते हैं जुमले-नारे। गरीबी हटाओ, सिंहासन खाली करो, शाइनिंग इंडिया, बच्चा-बच्चा राम का.. जैसे नारे और उनका हश्र प्रमाण है कि राजनीतिक विचारधाराएं मृतप्राय: हो चुकी हैं। चुनावी सभाओं में साम्यवाद, समाजवाद, धार्मिक सहिष्णुता जैसे मुद्दों पर होने वाली बातें इतिहास बन गई है। उनकी जगह अब है- छद्म राष्ट्रवाद, धर्म-संप्रदाय, समुदाय में ध्रुवीकरण के जरिये पैठ बनाने के प्रयास। जो दल जिस शिद्दत से इन भावनाओं को भुना सका, धन-बाहुबल का बेहतर मिश्रण कर सका, वह सदन के हां-पक्ष में पहुंचा। बात जब राजस्थान विधानसभा की हैं तो हालात एकांतरा बुखार जैसी है। ऐसा बु...