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Showing posts from 2018

वोटर भेड़ ही बने रहे तो ऊन के साथ चमड़ी भी उधेड़ लेंगे राजनीतिक दल

राजस्थान चुनाव की दस्तक के साथ हवा में उछल रहे नारों-जुमलों ने एक बार फिर मधु लिमये की बात याद दिला दी- 'जनता उस भेड़ की तरह है जिसकी चमड़ी पर से हम राजनीतिक दल वोटों की ऊन काटते हैं। ऊन काटे तब तक तो ठीक, लेकिन कुछ दल चमड़ी तक काट लेते हैं।' यहां भी राजनीतिक कुचक्र से बचाने की भावना भले ही हो, लेकिन मतदाता को भेड़ कहा गया। छह दशक की चुनावी यात्रा में यह साफ हो गया है कि राजनीतिक दल वोटर को क्या मानते हैं। जीत की जुगत के लिए हर बार बुनते हैं जुमले-नारे। गरीबी हटाओ, सिंहासन खाली करो, शाइनिंग इंडिया, बच्चा-बच्चा राम का.. जैसे नारे और उनका हश्र प्रमाण है कि राजनीतिक विचारधाराएं मृतप्राय: हो चुकी हैं। चुनावी सभाओं में साम्यवाद, समाजवाद, धार्मिक सहिष्णुता जैसे मुद्दों पर होने वाली बातें इतिहास बन गई है। उनकी जगह अब है- छद्म राष्ट्रवाद, धर्म-संप्रदाय, समुदाय में ध्रुवीकरण के जरिये पैठ बनाने के प्रयास। जो दल जिस शिद्दत से इन भावनाओं को भुना सका, धन-बाहुबल का बेहतर मिश्रण कर सका, वह सदन के हां-पक्ष में पहुंचा। बात जब राजस्थान विधानसभा की हैं तो हालात एकांतरा बुखार जैसी है। ऐसा बु...

अनुच्छेद 35ए, जम्मू-कश्मीर में अलग समुदाय का निर्माण; आखिर एक ही देश में इतनी संवैधानिक विषमता क्यों?

संविधान के कुछ जानकार कश्मीर के अलगाववाद के लिए अनुच्छेद 370 से अधिक अनुच्छेद 35ए को जिम्मेदार मानते हैं। अनुच्छेद 35ए संविधान का एक अदृश्य और रहस्यमय भाग है। यह संविधान के मूल पाठ में शामिल नहीं है। इसे परिशिष्ट के रूप में जोड़ा गया है, लेकिन यह जम्मू-कश्मीर राज्य की शासन योजना का आधार स्तंभ है। संविधान का मूल उद्देश्य देश को एकजुट करना होता है, किंतु इसकी भूमिका इसके उलट है। यह जम्मू-कश्मीर में एक अलग समुदाय का निर्माण करता है जिन्हें स्थाई नागरिक कहा जाता है और केवल उन्हें ही राज्य सरकार को चुनने से लेकर संपत्ति खरीदने का अधिकार हासिल है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि संविधान के इतने महत्वपूर्ण संशोधन में संसद की कोई भूमिका नहीं थी। न तो उसे सदन के पटल पर रखा गया और न ही उस पर बहस या मतदान हुआ। इसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 35ए में उल्लिखित विषयों पर बनाए गए कानून भारत के संविधान के अनुरूप होने जरूरी नहीं हैं। उनका उल्लंघन भी हो सकता है और अंतर्विरोध होने पर भारत के संविधान की जगह इन कानूनों को मान्यता दी जाएगी। इस अधिकार के तहत विधानसभा को जम्मू-कश्मीर के स्थाई नागरिकों की परिभाषा त...

जानिए, क्यों चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दल चंदा लेना पसंद नहीं कर रहे हैं

राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे को पारदर्शी बनाने और राजनीति में कालेधन के इस्तेमाल पर लगाम लगाने के इरादे से शुरू किए गए चुनावी बांड की खरीद के आंकड़े यही बयान कर रहे हैं कि उनसे अभीष्ट की पूर्ति शायद ही हो। यह उत्साहजनक नहीं कि चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दलों को चंदा देने का सिलसिला गति पकड़ता नहीं दिख रहा है। अभी तक करीब 470 करोड़ रुपये के कुल 1062 बांडों की ही खरीद हुई है। जब माना यह जा रहा था कि समय के साथ चुनावी बांडों के जरिये चंदा देने की प्रवृत्ति बढ़ेगी तब संकेत यही मिल रहे हैं कि उसमें कमी आ रही है। चुनावी बांड की खरीद के लिए अभी तक चार बार दस-दस दिन की समय अवधि घोषित की जा चुकी है, लेकिन इस दौरान खरीदे गए बांडों की संख्या के साथ उनकी राशि भी घटती दिखी। पहले चरण यानी मार्च में जहां 222 करोड़ रुपये के 520 बांड बिके वहीं चौथे चरण यानी जुलाई में लगभग 32 करोड़ रुपये के मात्र 82 बांड। यह आंकड़ा तो यही रेखांकित कर रहा है कि लोग चुनावी बांडों से चंदा देने में कतरा रहे हैं। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि राजनीतिक दल ही इस तरीके से चंदा लेना पसंद नहीं कर रहे हैं। यदि...

खुश रहें! न अच्छे दिन आए, न अच्छे दिन आएंगे

साफ नीयत सही विकास’ के साथ ईमानदारी और कामकाजी सरकार का जिक्र। ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ महज जुमले के साथ कांग्रेस का हमला। ‘हम में है दम अब आपके भरोसे नहीं’ के नारे के साथ नीतीश समेत एनडीए सहयोगियों का दम-खम। ‘सब साथ तो  फिर सत्ता हमारे हाथ’ के साथ विपक्ष का नारा। तेवर हर किसी के, पर मुद्दे गायब। तो क्या ये मान लिया जाए कि धर्म के आसरे ध्रुवीकरण की राजनीति की उम्र पूरी हो चुकी है। हिन्दुत्व की चाशनी में सोशल इंजीनियरिंग का खेल खत्म हो चला है। मुद्दों की फेहरिस्त कोई गिना दे पर पूरी कोई नहीं करता, ये सच मोदीकाल की देन है। ईमानदारी का राग या घोटालों के दाग की परिभाषा बदल चुकी है। यानी पहली बार देश प्रिंट मीडिया और टीवी मीडिया से होते हुए डिजिटल मीडिया या कहें सोशल मीडिया के आसरे हर मुद्दे पर इतनी बहस कर चुका है कि छुपाने के लिए किसी दल के पास कुछ नहीं और बताने के लिए किसी नेता के पास कुछ नया नहीं है। फिर भी 2019 आएगा। चुनाव होंगे। लोकतंत्र का राग गाया जाएगा और वह मुद्दे जिन्हें कभी नेहरू के सोशलिज्म तले देश ने देखा-समझा। लालबहादुर शास्त्री के ‘जय जवान जय किसान’ के नारे को सुना। ...

क्या है पेट्रोल-डीज़ल की चढ़ती कीमतों के पीछे का झूठ???

‘सेमल वृक्ष कितना बड़ा क्यों न हो, उससे हाथी नहीं बांधा जा सकता।’ -  नीतिशास्त्र ‘सरकार का सत्तावृक्ष कितने ही बड़े बहुमत से क्यों न हो, उसे नागरिकों का हित नहीं बांध सकता।’ - राजनीतिशास्त्र हम वर्षों से यह झूठ सुनते आ रहे हैं। सहन करते आ रहे हैं।  मानते जा रहे हैं। किन्तु अब नहीं। क्योंकि, पहले हम विवश थे। लागत से भी कम मूल्य पर खरीदने वाले, किसी भी तरह की शिकायत नहीं कर सकते। तब हमें पेट्रोल हो या डीज़ल, सब कुछ कम कीमत पर मिलता था - यानी मूल कीमत का बोझ सरकार उठाती थी। जिसे सब्सिडी कहते हैं। यानी ‘राज सहायता’। बड़ा सामंती सा नाम! अब नहीं। क्योंकि अब न तो पेट्रोल पर राज सहायता है, न ही डीज़ल पर। तो हम साधारण नागरिकों का पूर्ण अधिकार है कि पूर्ण सत्य जानें। ताकि असत्य सामने आ सके। पहला अर्धसत्य है - कि सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती। क्योंकि हमारे यहां सबकुछ अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल (क्रूड) की कीमतों से तय होता है। जो अचानक बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक चली गई। पूर्ण सत्य यह है कि सरकार ही सबकुछ कर सकती है। पलक झपकते सरकार कीमतें कम कर सकती है। सर्वाधिक आसान उपाय है - सेंट्रल एक्सा...

किसान सरकारों को बोझ क्यूँ लगते हैं ?

किसी भी देश की तरक्की का रास्ता खेत -खलिहानो से होकर जाता है।  हमारे देश में सबसे दयनीय हालत किसान की  है। वो किसान जो संसार का पेट भरता है आज खुद भूखा रहने पर मजबूर है। कभी मौसम की मार, कभी समय पर बिजली-पानी का न मिल पाना, कर्ज के बोझ तले दबा हुआ। फटे हाल उम्मीद की नज़रों से देखता हुआ लेकिन जो आता है इस्तेमाल करके चला जाता है। ऐसी हालत क्यूँ हुई किसान की ? कभी कोई नहीं सोचता।  क्यों ? क्यूंकि इनसे पार्टी फण्ड के नाम पर कभी किसी को पैसा नहीं मिलता। नेताओं की झोली नहीं भरती। पिछले तीन सालों में हमारे देश तमाम राज्य सरकारों ने 17लाख करोड़ रु संघठित क्षेत्र में टैक्स माफ़ी के रूप में दे दिया जबकि किसानो को यदि सम्पूर्ण कर्ज माफ़ी दी जाय तो भी 12. 6 लाख करोड़ रु का खर्च आएगा। लेकिन १२. ६ लाख करोड़ के लिए सोचना पड़ेगा की इतना पैसा आएगा कहाँ से ? सारे नेतागण बोल उठेंगे कि ये हो जायेगा वो हो जायेगा। कथित अर्थशास्त्री अपने वातानुकूलित कमरों में बैठ कर किसान की लागत का आंकलन करते है। SBI के अधिकारी फण्ड की कमी का रोना रोते हैं। पर इस पर ध्यान कोई भी जानबूझकर नहीं देना चाहता कि हमने ...

भारतीय मुस्लिमों को पाकिस्तानी कहना अपराध तो उनका क्या जो कहते हैं- पाकिस्तान जिंदाबाद

एआइएमआइएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी अपने विवादित बयानों के कारण हमेशा चर्चा में रहते हैं। प् हले वह लोकसभा में अपने एक विवादित वक्तव्य के कारण चर्चा में रहे। उनके अनुसार, ‘भारत में रहने वाले मुसलमानों ने जिन्ना के विचारों (दो राष्ट्र सिद्धांत) को खारिज कर दिया था। ऐसे में जो लोग भारतीय मुस्लिमों को आज भी ‘पाकिस्तानी’ कहकर बुलाते हैं, उन्हें गैर- जमानती कानून के तहत सजा मिलनी चाहिए।’ देश के मुसलमानों के संदर्भ में जो कुछ ओवैसी ने कहा वह पूरा सच नहीं है। नि:संदेह, किसी भी भारतीय को ‘पाकिस्तानी’ कहना उसे कलंकित करने जैसा है। उसका एक स्पष्ट कारण भी है। उनका ताजा विवादित बयान यह था कि जम्मू के सुंजवां में आंतकी हमले में जिन पांच कश्मीरी मुसलमानों ने अपना बलिदान दिया है उनके बारे में बात क्यों नहीं हो रही है? देश के मुसलमानों के संदर्भ में जो कुछ ओवैसी ने कहा वह पूरा सच नहीं है। नि:संदेह, किसी भी भारतीय को ‘पाकिस्तानी’ कहना उसे कलंकित करने जैसा है। उसका एक स्पष्ट कारण भी है। पाकिस्तान अपने जन्म से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर भारत से युद्ध कर रहा है। हर दूसरे दिन सीमापार से होने वाले आतंकवा...

जो लोग राम मंदिर को तोड़ने के लिए बाबर को दोषी नहीं मानते उन्हें बाबरनामा जरूर पढ़ना चाहिए

हमारे देश में एक बहस छिड़ी हुई है कि राम मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गयी। एक तबका कहता है कि राम मंदिर को बाबर ने तुडबाया और वहां पर मस्जिद का निर्माण करवाया और दूसरा कथित सेक्युलर वादी जिसे इतिहास को अपने हिसाब से पेश करने में ज्यादा आनंद आता है कहता है बाबर तो सहिषुण था बाबरी मस्जिद का निर्माण उसने नहीं करवाया। अभी कोई बाबर के वंशज भी बोल रहा था कि बाबर ने राममंदिर का का विध्वंस किया होतो में माफ़ी मांगने को तैयार हूँ।     मैं ऐसे लोगों को कहूंगा की भ्रमित लोगो बाबर नामा पढ़ो जिससे तुम बाबर की राय जान सको हिंदुस्तान के बारे में। जो खुद बाबर ने लिखा है। शायद उनकी राय बदल जाये ? दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जिसका कोई अतीत न हो अतीत अच्छा या बुरा दोनों प्रकार का हो सकता है। इतिहास तो इतिहास होता है उसमे अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता। शायद भारत ही ऐसा देश जहाँ इतिहास को तोड़ मरोड़कर अपने सुविधा जनक तरीके से पेश किया जाता है।  प्राचीन भारत के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक इतिहास को गलत तरीके से पेश करने और विधि, राजनीति एवं विज्ञान के क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियों ...

न्यूनतम समर्थन मूल्य की जटिल गुत्थी, क्या किसानों को मिलेगा फायदा

दो दशक पहले भारत में एक महान अक्रांति की शुरुआत हुई जिसे हम नई अर्थव्यवस्था कहते हैं। पांच फीसदी के आंकडे़ पर ही ठिठकी विकास दर को रफ्तार देने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश और सरकारी लाइसेंस कोटा परमिट राज की जकड़बंदी खत्म करने की घोषणा को बीसवीं सदी की सबसे अहम घटना माना गया। यह तब भी नजरअंदाज किया गया कि दल बदलने में माहिर भ्रष्ट भारतीय नेता और नौकरशाही सरकारी ताकत के मूल और चुनावी चंदे के अक्षय पात्र, लाइसेंस कोटा परमिट राज को त्यागने की तनिक भी उतावली न दिखाएंगे। अब तक सरकारें भले ही बदली हों, राज्यों में किसानी से शिक्षा तक की सारी राजकीय या निजी संस्थाओं में पुराने बिचौलियों की ही धमक कायम है। नई अर्थव्यवस्था का घोषित दर्शन यह था कि सरकारी नियम पारदर्शी होंगे तो भ्रष्टाचार कम होगा, मेहनती को मौका मिलेगा, नए उद्योग खुलेंगे, रोजगार बढ़ेंगे और फर्श से अर्श पर जा पहुंचे सफल नए कार्पोरेट्स उन ग्रामीण गरीबों के हक में अपना सामाजिक उत्तरदायित्व जरूर निभाएंगे जिनके बीच से वे आए हैं। 19वीं सदी में अमेरिका और यूरोप में यही हुआ। भारतीय परिदृश्य में खेती अब भी अहम आज निजी क्षेत्र म...

जय जवान जय किसान !,:कश्मीर के 16 वर्षीय युवाओं के आतंकी बनने का आधा सच

आतंक से भी अधिक विकृत होता है झूठ।' - अज्ञात कश्मीर से झूठ ही सामने आते हैं। सभ्य भाषा में आधा सच कहना बेहतर होगा। ताजे आधे सच डरावने हैं। पहला है 16 वर्षीय फरदीन का। उसने सेंट्रल रिजर्व पोलिस फोर्स(सीआरपीएफ) कैम्प पर आत्मघाती हमला किया। पांच जवान शहीद। और भारी चर्चा में आ गया। कि कश्मीर में "होमग्रोन" टेरर बढ़ गया है। बच्चे-युवा इस्लाम को खतरे में देख, बम बांधकर खुद मरने और मारने को तत्पर हो रहे हैं। सेना व अर्धसैनिक बलों के "अत्याचार" के विरूद्ध नौजवान खड़े हो रहे हैं। दूसरा सच है- आतंक को फलने-फूलने, फैलाने के लिए पैसा लगाने वालों के खिलाफ चार्जशीट। टेरर फंडिंग की इस कानूनी कार्रवाई में पाकिस्तान और उससे पैसे लेकर आतंक चलाने वाले हाफिज सईद और सैयद सलाउद्दीन नामक दो अपराधियों के नाम हैं। साथ ही कश्मीरी अलगाववादी हुर्रियत के कई नेताओं के। दोनों आधे सच, वास्तव में एक-दूजे से जुड़े हुए हैं। और मिलाकर पूरा, बड़ा झूठ सामने लाते हैं। देखिए, कैसे? पहले फरदीन या 16-18 की उम्र के कश्मीरियों के अातंक के प्रति बढ़ते रुझान का सच। फरदीन मोहम्मद खंडे चर्चा में इसल...

इतिहास से छेड़छाड़ क्यों? चरखे से आजादी कैसे ?

इतिहास से छेड़छाड़ क्यों? : दोस्तों हम बचपन से सुनते और पढ़ते आ रहे हैं कि आजादी एक परिवार के बलिदान और त्याग की वजह से और गाँधी जी की सीखों से आयी है। जिसका प्रमाण हमें नौ लाख योजना और इमारतें  जो एक परिवार के नाम पर चल रही हैं, हिंदुस्तान में लगभग सत्तर से अस्सी हज़ार ऐसी सड़कें हैं जो एक परिवार  नाम पर हैं। क्यों ? कितने चढ़े फांसी पर और  कितनो ने गोली खायी थी , क्यूँ झूट  साहब कि  चरखे से आजादी आयी थी।  हिंदुस्तान के इतिहास का दुर्भाग्य है कि उसको तोड़ मरोड़कर पेश किया गया है। हमने सिकंदर को विश्व विजेता बता दिया और महाराज पुरु को भुला दिया जबकि यूरोपियन इतिहास में स्पष्ट है सिकंदर हिंदुस्तान से हार कर गया था। हमने अकबर को महान बना दिया परन्तु महाराणा प्रताप को........? हमने कालू बाल्मीकि के बलिदान को जाति के जहर में घोल कर भुला दिया। ऐसे तमाम उदाहरण मिलेंगे आपको।  ऐसे ही हमने या हमारे देश के इतिहास लेखकों ने या चाटुकार लेखकों ने इतिहास लिखने में चाटुकारिता दिखाई है वो किसी भी तरह से तथ्यों पर खरी नहीं उतरती है।  मैं आभारी हूँ गाँधी जी की...

चाणक्य ने कहा है कि अज्ञान के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं

अज्ञान आपका घातक शत्रु है, जबकि ज्ञान हितैषी मित्र। ज्ञान जीवन के लिए आशा, उमंग, प्रेरणा, उत्साह व आनंद के इतने गवाक्ष खोल देता है कि जीवन का क्षण-क्षण ईश्वर का अनमोल उपहार प्रतीत होता है। एक सृजनशील क्षण आपको प्रतिष्ठा के उत्तुंग शिखर पर प्रतिस्थापित कर सकता है, जबकि कुविचार की अवस्था में क्षण भर का निर्णय आपको निकृष्टता की गर्त में धकेलकर जन्म-जन्मांतरों के लिए आपको लांछित व कलंकित करने के लिए पर्याप्त है। अज्ञान हमें निराशा और पतन की ओर ले जाता है, जबकि ज्ञान आात्मिक उन्नति का पर्याय बन जीवन समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नयन की आधारशिला भी बनाता है। जीवन में यत्र-तत्र-सर्वत्र आनंद व सृजन का सौरभ प्रवाहित करता रहता है। चाणक्य ने कहा है कि ‘अज्ञान के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है।’ अज्ञान के अंधकार में ज्ञान रूपी प्रकाश के अभाव में भविष्य रूपी भाग्य की राहें अदृष्ट हो जाती हैं और मनुष्य असहाय होकर अपने कर्म व चिंतन की दहलीज पर ही ठोकरें खाने को विवश होता है। मंजिल व लक्ष्य पास होने पर भी वह उसे न पाने के लिए अभिशप्त होता है। फिर वह अपनी ही सोच व कर्म के चक्रव्यूह में फंसकर भय से प्रकंपित ह...

आज समाज बिखर रहा है क्योंकि भावना का परित्याग कर दिया गया है

बुद्धि का विकास आवश्यक है। हम बुद्धि का विकास किस ओर करते हैं, यह बात विचारणीय है। बुद्धि का विकास हम दो दिशा में कर सकते हैं। प्रथम, हम बुद्धि को सही दिशा देकर उसे ज्ञान की उच्चतम अवस्था की उपलब्धि करा सकते हैं। कहने का आशय यह है कि हम बुद्धि को बाह्य जगत से मोड़कर अपने अंतर्मन की ओर अग्रसारित करा सकते हैं, जिससे वह अपनी आत्मा के आलोक को प्राप्त कर ले और यही मनुष्य जन्म प्राप्त करने का सच्चा व यथार्थ उद्देश्य है। देश में इसी दिशा की ओर सभी महापुरुष चले हैं। उनके द्वारा वह उन्नति प्राप्त की गई है। इस कारण उन्होंने समाज व संसार को सही रास्ता दिखलाया। बुद्धि भावना से जुड़कर आत्मिक उन्नति को प्राप्त कर पाती है। इसके विपरीत बुद्धि जब भावना का परित्याग करते हुए मात्र बुद्धिवादी बनकर आगे बढ़ती है, तब वह इंद्रियों के सुखों की पोषक होती है। वह इस ओर लग जाती है कि किस प्रकार से शरीर के सुख के लिए अधिक से अधिक योगदान किया जा सके। शरीर सुख ही मुख्य उद्देश्य रह जाता है। जैसा कि आजकल दृष्टिगोचर हो रहा है। आज समाज बिखर रहा है। क्यों? इसलिए कि लोग केवल बुद्धिवादी होकर रह गए हैं। भावना का परित्याग कर दि...

क्या गांवों की ओर चलें, क्योंकि दिल्ली-NCR क्षेत्र रहने लायक नहीं रहा

विश्व स्तर पर ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में अधिक लोग रहते हैं। 2007 में पहली बार इतिहास में वैश्विक शहरी आबादी वैश्विक ग्रामीण जनसंख्या से अधिक हुई और दुनिया की जनसंख्या इसके बाद मुख्य रूप से शहरी बनी हुई है। 21वीं शताब्दी के शहरी इलाकों का प्रबंधन सबसे महत्वपूर्ण विकास चुनौतियों में से एक बन गया है। निरंतर शहरों के निर्माण में हमारी सफलता या विफलता 2015 के बाद के संयुक्त राष्ट्र विकास एजेंडे की सफलता में एक प्रमुख कारक होगी। विश्व की 54 प्रतिशत जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रहती है इस शताब्दी में चार मेगा ट्रेंड उभरे हैं, शहरीकरण उनमें से एक है। आज विश्व की 54 प्रतिशत जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रहती है जो 2050 तक बढ़कर 66 प्रतिशत हो जाने की संभावना है। हालांकि 2030 तक इसके 60 प्रतिशत तक पहुंचने की उम्मीद है। दूसरे शब्दों में कहें तो 2050 तक शहरी क्षेत्रों में रहने के लिए अतिरिक्त 2.5 अरब लोगों की भविष्यवाणी की गई है। शीर्ष 600 शहरी केंद्रों की वैश्विक जीडीपी में लगभग 60 प्रतिशत हिस्सेदारी है। करीब एक अरब लोग मलिन बस्तियों में रहते हैं जो कि हमारी वैश्विक आबादी का ...