एआइएमआइएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी अपने विवादित बयानों के कारण हमेशा चर्चा में रहते हैं। प्हले वह लोकसभा में अपने एक विवादित वक्तव्य के कारण चर्चा में रहे। उनके अनुसार, ‘भारत में रहने वाले मुसलमानों ने जिन्ना के विचारों (दो राष्ट्र सिद्धांत) को खारिज कर दिया था। ऐसे में जो लोग भारतीय मुस्लिमों को आज भी ‘पाकिस्तानी’ कहकर बुलाते हैं, उन्हें गैर- जमानती कानून के तहत सजा मिलनी चाहिए।’ देश के मुसलमानों के संदर्भ में जो कुछ ओवैसी ने कहा वह पूरा सच नहीं है। नि:संदेह, किसी भी भारतीय को ‘पाकिस्तानी’ कहना उसे कलंकित करने जैसा है। उसका एक स्पष्ट कारण भी है।
उनका ताजा विवादित बयान यह था कि जम्मू के सुंजवां में आंतकी हमले में जिन पांच कश्मीरी मुसलमानों ने अपना बलिदान दिया है उनके बारे में बात क्यों नहीं हो रही है?
देश के मुसलमानों के संदर्भ में जो कुछ ओवैसी ने कहा वह पूरा सच नहीं है। नि:संदेह, किसी भी भारतीय को ‘पाकिस्तानी’ कहना उसे कलंकित करने जैसा है। उसका एक स्पष्ट कारण भी है।
पाकिस्तान अपने जन्म से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर भारत से युद्ध कर रहा है। हर दूसरे दिन सीमापार से होने वाले आतंकवादी हमलों और सैन्य गोलीबारी में कई निरपराध (जवान सहित) अपनी जान गंवाते हैं। इस्लामी गणराज्य होने के कारण पाकिस्तान ‘काफिर’ भारत के खिलाफ अघोषित रुप से जिहाद में लिप्त है। ऐसे में एक औसत भारतीय के लिए आतंक के पर्याय पाकिस्तान से सहानुभूति रखने वाला हर व्यक्ति देशद्रोही है। छह फरवरी को ओवैसी ने जिस मुद्दे को उठाया उसका दूसरा पक्ष भी है-जिस पर वह अपनी पृष्ठभूमि के कारण मौन रह गए। यदि उनके लिए भारतीय मुस्लिमों को ‘पाकिस्तानी’ कहना अपराध है तो देश के उन लोगों के बारे में ओवैसी की क्या राय है- जो ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाते हुए गौरवान्वित महसूस करते हैं और ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम’ या फिर पाकिस्तान विरोधी नारों से क्रोधित हो उठते हैं?
10 फरवरी को जम्मू-कश्मीर विधानसभा ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे से गूंज उठी। इस गूंज के सूत्रधार नेशनल कांफ्रेंस के विधायक मोहम्मद अकबर लोन रहे। इसे उचित ठहराते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं पहले एक मुसलमान हूं और अपनी भावना भाजपा विधायकों के पाकिस्तान विरोधी नारों के कारण रोक नहीं पाया।’ इसके बाद 13 फरवरी को कराची साहित्य महोत्सव में कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर भारत सरकार की राष्ट्रीय नीति का विरोध करते हुए पाकिस्तान से सहर्ष प्रेम स्वीकारते नजर आए।
क्या यह सत्य नहीं कि कश्मीर में अक्सर कई युवा पाकिस्तान के साथ-साथ लश्कर, जैश और आइएस के झंडे लहराते हुए उसके समर्थन में नारा बुलंद करते हैं और भारत की मौत की दुआ मांगते है? क्या ओवैसी ने ऐसे तत्वों के विरुद्ध संसद में आवाज उठाई? इन प्रश्नों पर ओवैसी की चुप्पी के पीछे एआइएमआइएम का इतिहास है। इस राजनीतिक दल की जड़ें उस विभाजनकारी मजलिस-एइत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआइएम) में मिलती हैं जिसका गठन 1927 में हैदराबाद के तत्कालीन निजाम ने ब्रितानियों की मदद हेतु किया था। इसके संस्थापक सदस्यों में सैयद कासिम रिजवी का नाम भी शामिल था जो कट्टर रजाकार नामक हथियारबंद गुट का सरगना भी था। इस संगठन ने न केवल मजहबी कारणों से 80 प्रतिशत हिंदू आबादी वाले हैदराबाद के भारत में विलय का विरोध किया, बल्कि तमाम हिंदुओं की हत्या के साथ कई महिलाओं के साथ दुष्कर्म भी किया।
सरदार पटेल की अगुआई में हैदराबाद की सफल मुक्ति के पश्चात 1948 में एमआइएम पर प्रतिबंध लगा दिया गया और जिहादी कासिम सशर्त पाकिस्तान जाने तक जेल में बंद रहा। 1957 में भारत छोड़ने से पूर्व रिजवी ने एमआइएम की कमान अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंपी जिन्होंने बाद में दल के नाम के आगे ‘अखिल भारतीय’ जोड़ दिया। कालांतर में इस राजनीतिक दल की कमान अब्दुल वाहिद और सुल्तान सलाहुद्दीन से होते हुए असदुद्दीन के हाथों में पहुंची, किंतु उसका मूल चिंतन अब भी अपरिवर्तित है। तेलंगाना से पार्टी विधायक और असदुद्दीन के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी द्वारा हिंदुओं और भारतीय सैनिकों के संदर्भ में सोशल मीडिया में वायरल विषवमन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। एमआइएम को जो विचार कासिम रिजवी और रजाकरों से विरासत में मिले उन्हीं के कारण शायद ओवैसी बंधुओं को ‘वंदे-मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ बोलने में समस्या आती है। दुर्भाग्य से यह मानसिकता केवल हैदराबाद या कश्मीर के कुछ हिस्सों तक ही सीमित नहीं है। गत दिनों उत्तर प्रदेश के कासगंज में जिस युवा चंदन की गोली मार कर हत्या कर दी गई उसका अपराध केवल इतना था कि वह मुस्लिम बहुल क्षेत्र में तिरंगा यात्रा निकालते समय पाकिस्तान-विरोधी नारा लगा रहा था। यह कैसी मानसिकता है?
उनका ताजा विवादित बयान यह था कि जम्मू के सुंजवां में आंतकी हमले में जिन पांच कश्मीरी मुसलमानों ने अपना बलिदान दिया है उनके बारे में बात क्यों नहीं हो रही है?
देश के मुसलमानों के संदर्भ में जो कुछ ओवैसी ने कहा वह पूरा सच नहीं है। नि:संदेह, किसी भी भारतीय को ‘पाकिस्तानी’ कहना उसे कलंकित करने जैसा है। उसका एक स्पष्ट कारण भी है।
पाकिस्तान अपने जन्म से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर भारत से युद्ध कर रहा है। हर दूसरे दिन सीमापार से होने वाले आतंकवादी हमलों और सैन्य गोलीबारी में कई निरपराध (जवान सहित) अपनी जान गंवाते हैं। इस्लामी गणराज्य होने के कारण पाकिस्तान ‘काफिर’ भारत के खिलाफ अघोषित रुप से जिहाद में लिप्त है। ऐसे में एक औसत भारतीय के लिए आतंक के पर्याय पाकिस्तान से सहानुभूति रखने वाला हर व्यक्ति देशद्रोही है। छह फरवरी को ओवैसी ने जिस मुद्दे को उठाया उसका दूसरा पक्ष भी है-जिस पर वह अपनी पृष्ठभूमि के कारण मौन रह गए। यदि उनके लिए भारतीय मुस्लिमों को ‘पाकिस्तानी’ कहना अपराध है तो देश के उन लोगों के बारे में ओवैसी की क्या राय है- जो ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाते हुए गौरवान्वित महसूस करते हैं और ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम’ या फिर पाकिस्तान विरोधी नारों से क्रोधित हो उठते हैं?
10 फरवरी को जम्मू-कश्मीर विधानसभा ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे से गूंज उठी। इस गूंज के सूत्रधार नेशनल कांफ्रेंस के विधायक मोहम्मद अकबर लोन रहे। इसे उचित ठहराते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं पहले एक मुसलमान हूं और अपनी भावना भाजपा विधायकों के पाकिस्तान विरोधी नारों के कारण रोक नहीं पाया।’ इसके बाद 13 फरवरी को कराची साहित्य महोत्सव में कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर भारत सरकार की राष्ट्रीय नीति का विरोध करते हुए पाकिस्तान से सहर्ष प्रेम स्वीकारते नजर आए।
क्या यह सत्य नहीं कि कश्मीर में अक्सर कई युवा पाकिस्तान के साथ-साथ लश्कर, जैश और आइएस के झंडे लहराते हुए उसके समर्थन में नारा बुलंद करते हैं और भारत की मौत की दुआ मांगते है? क्या ओवैसी ने ऐसे तत्वों के विरुद्ध संसद में आवाज उठाई? इन प्रश्नों पर ओवैसी की चुप्पी के पीछे एआइएमआइएम का इतिहास है। इस राजनीतिक दल की जड़ें उस विभाजनकारी मजलिस-एइत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआइएम) में मिलती हैं जिसका गठन 1927 में हैदराबाद के तत्कालीन निजाम ने ब्रितानियों की मदद हेतु किया था। इसके संस्थापक सदस्यों में सैयद कासिम रिजवी का नाम भी शामिल था जो कट्टर रजाकार नामक हथियारबंद गुट का सरगना भी था। इस संगठन ने न केवल मजहबी कारणों से 80 प्रतिशत हिंदू आबादी वाले हैदराबाद के भारत में विलय का विरोध किया, बल्कि तमाम हिंदुओं की हत्या के साथ कई महिलाओं के साथ दुष्कर्म भी किया।
सरदार पटेल की अगुआई में हैदराबाद की सफल मुक्ति के पश्चात 1948 में एमआइएम पर प्रतिबंध लगा दिया गया और जिहादी कासिम सशर्त पाकिस्तान जाने तक जेल में बंद रहा। 1957 में भारत छोड़ने से पूर्व रिजवी ने एमआइएम की कमान अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंपी जिन्होंने बाद में दल के नाम के आगे ‘अखिल भारतीय’ जोड़ दिया। कालांतर में इस राजनीतिक दल की कमान अब्दुल वाहिद और सुल्तान सलाहुद्दीन से होते हुए असदुद्दीन के हाथों में पहुंची, किंतु उसका मूल चिंतन अब भी अपरिवर्तित है। तेलंगाना से पार्टी विधायक और असदुद्दीन के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी द्वारा हिंदुओं और भारतीय सैनिकों के संदर्भ में सोशल मीडिया में वायरल विषवमन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। एमआइएम को जो विचार कासिम रिजवी और रजाकरों से विरासत में मिले उन्हीं के कारण शायद ओवैसी बंधुओं को ‘वंदे-मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ बोलने में समस्या आती है। दुर्भाग्य से यह मानसिकता केवल हैदराबाद या कश्मीर के कुछ हिस्सों तक ही सीमित नहीं है। गत दिनों उत्तर प्रदेश के कासगंज में जिस युवा चंदन की गोली मार कर हत्या कर दी गई उसका अपराध केवल इतना था कि वह मुस्लिम बहुल क्षेत्र में तिरंगा यात्रा निकालते समय पाकिस्तान-विरोधी नारा लगा रहा था। यह कैसी मानसिकता है?
वास्तव में पाकिस्तान एक इस्लामी राष्ट्र न होकर एक रुग्ण विचार है जो इस्लाम के जन्म से पहले के भारत को निरस्त करता है। अपनी इसी अलग पहचान को अक्षुण्ण रखने के लिए वह उन सभी के विरुद्ध जिहाद की मुद्रा में है जो विश्व के इस भूखंड पर बहुलतावाद और कालातीत संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
किसी भी विचारधारा को भौगोलिक सीमाओं से बांधकर नहीं रखा जा सकता। शायद इसी कारण अनेक भारतीय पासपोर्टधारकों का दिल आज भी पाकिस्तान के लिए धड़कता है। भारत में ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत को मोहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग और वामपंथियों ने मूर्त रूप दिया था। उस कालखंड में एक बड़ी संख्या में मुस्लिम पाकिस्तान के लिए आंदोलित थे, फिर भी विभाजन के बाद वे भारत छोड़कर नहीं गए। इनमें से अधिकतर तो कांग्रेस से जुड़ गए, जिसे वे विभाजन से पहले हिंदुओं का दल कहकर तिरस्कृत करते थे। इस प्रकार के लोगों की एक लंबी सूची है। इनमें से कई अपने- अपने राज्यों में विधायक, सांसद रहे। कुछ इससे भी उच्च पदों तक आसीन हुए।
ओवैसी से संबंधित विवाद की पृष्ठभूमि में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा 24 जनवरी, 1948 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दिए भाषण के कुछ अंश काफी महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘मुझे अपनी विरासत और अपने पूर्वजों पर गर्व है जिन्होंने भारत को बौद्धिक और सांस्कृतिक ऊंचाई प्रदान की। आप इस अतीत के बारे में कैसा अनुभव करते हो? क्या आपको लगता है कि आप भी इस विरासत में सहभागी और उत्तराधिकारी हैं? क्या आप उन वस्तुओं को पराया समझते हो और अजनबी बनकर उसके बगल से गुजर जाते हो? क्या आप उस वस्तु को देखकर रोमांचित नहीं होते जो इस अनुभूति से पैदा होती है कि हम एक विशाल खजाने के उत्तराधिकारी और संरक्षक हैं? आप मुस्लिम और मैं हिंदू हूं। हमारे मजहब अलग-अलग हो सकते हैं, किंतु इस कारण हम उस सांस्कृतिक विरासत से वंचित नहीं हो जाते जो आपकी भी है और मेरी भी है। जब यह अतीत हमें बांधकर रखे हुए है तो वर्तमान या भविष्य हमारे बीच दरार पैदा क्यों करें?’ पंडित नेहरू द्वारा पूछे गए इन प्रश्नों पर असदुद्दीन औवेसी और उनके जैसे अन्य लोगों को मंथन करने की आवश्यकता है ताकि उन्हें यह स्पष्ट हो सके कि आखिर क्यों कुछ भारतीयों को ‘पाकिस्तानी’ कहकर बुलाया जाता है?
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