‘सेमल वृक्ष कितना बड़ा क्यों न हो, उससे हाथी नहीं बांधा जा सकता।’ - नीतिशास्त्र
‘सरकार का सत्तावृक्ष कितने ही बड़े बहुमत से क्यों न हो, उसे नागरिकों का हित नहीं बांध सकता।’ -राजनीतिशास्त्र
हम वर्षों से यह झूठ सुनते आ रहे हैं। सहन करते आ रहे हैं। मानते जा रहे हैं।
किन्तु अब नहीं।
क्योंकि, पहले हम विवश थे।
लागत से भी कम मूल्य पर खरीदने वाले, किसी भी तरह की शिकायत नहीं कर सकते।
तब हमें पेट्रोल हो या डीज़ल, सब कुछ कम कीमत पर मिलता था - यानी मूल कीमत का बोझ सरकार उठाती थी। जिसे सब्सिडी कहते हैं। यानी ‘राज सहायता’। बड़ा सामंती सा नाम!
अब नहीं। क्योंकि अब न तो पेट्रोल पर राज सहायता है, न ही डीज़ल पर।
तो हम साधारण नागरिकों का पूर्ण अधिकार है कि पूर्ण सत्य जानें। ताकि असत्य सामने आ सके।
पहला अर्धसत्य है - कि सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती। क्योंकि हमारे यहां सबकुछ अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल (क्रूड) की कीमतों से तय होता है। जो अचानक बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक चली गई।
पूर्ण सत्य यह है कि सरकार ही सबकुछ कर सकती है। पलक झपकते सरकार कीमतें कम कर सकती है। सर्वाधिक आसान उपाय है - सेंट्रल एक्साइज़ ड्यूटी घटाना।
स्वयं पेट्रोलियम मंत्रालय की एक पेट्रो प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल है। उसने बताया है कि यदि दिल्ली में 77.17 रु. प्रति लीटर पेट्रोल है - तो उसमें 19.48 रु. तो अकेले सेंट्रल एक्साइज़ ड्यूटी के हैं। यानी कुल कीमत का 25%। इसके अलावा 2.5% बेसिक कस्टम ड्यूटी है। राज्य का सेल्स टैक्स या वैट 21% तक है। डीलर तक, यानी पेट्रोल पम्प तक यह 37.65 रु. लीटर में पहुंचाया जाता है। यानी आधी कीमत से भी 1% कम।
और सरकार इसलिए घबरा रही है ड्यूटी घटाने के लिए - चूंकि उसे डर है उसका बजट बिगड़ जाएगा। एक के बाद एक बड़े-बड़े मंत्री यह दबाव बना रहे हैं कि इस ड्यूटी से तो सड़कें/पुल/ढांचे जैसे महत्वपूर्ण विकास कार्य हो रहे हैं। डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर बन रहा है। कैसे कम कर दें?
यह भी झूठ है।
तथ्यों को देखना होगा।
सभी जानते हैं कि मई 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही अनूठा संयोग हुआ। जो क्रूड की कीमतें 113 डॉलर प्रति बैरल थीं, वे तेज़ी से गिरने लगीं। गिरती चली गईं। और जनवरी 2015 में तो 50 डॉलर प्रति बैरल हो गईं!
किन्तु ‘असंभव के विरुद्ध’ ने हमेशा प्रश्न उठाया है कि इतनी कीमतों के घटने पर भी हम साधारण नागरिकों को घटी दरों का कोई विशेष लाभ नहीं दिया गया। उल्टे, कीमतें बढ़ा कर हमें त्रस्त किया गया। राज सहायता समाप्त कर दी - जो बहुत अच्छा कदम था। क्यों हम पूरा कर चुकाने वाले नागरिक, लागत से कम पर खरीदें? और क्यों हम स्वाभिमानी नागरिक राज सहायता की याचना करें?
किन्तु बढ़ी या बढ़ती जा रही कीमतें कोई केवल सब्सिडी समाप्ति का परिणाम नहीं थीं। बल्कि मोदी सरकार लगातार एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाती जा रही थी।
कोई नौ बार ड्यूटी बढ़ाई।
केवल 1 बार, 2 रु. की ड्यूटी घटाई।
क्यों?
क्या सरकार और उसकी ऑइल मार्केटिंग कंपनियां मुनाफ़ाखोर कारोबारी हैं - जो ग्राहक की अनिवार्य आवश्यकता का ग़लत फ़ायदा उठाना चाहती हंै? यदि नहीं, तो क्या सरकार हम साधारण नागरिकों की पेट्रोल-डीज़ल की विवशता से अपना ख़जाना भरना चाहती है?
जी, हां। ऐसा ही है।
केवल एक दृष्टि, उबाऊ किन्तु आंखें खोलने वाले आंकड़ों पर डालनी होगी :
2014-15 में केन्द्र ने 1 लाख 72 हजार करोड़ पेट्रो ड्यूटी से कमाए थे। राज्यों ने 1 लाख 60 हजार करोड़। पिछले वर्ष यह कमाई बढ़कर 3 लाख 34 हजार करोड़ रु. हो गई!
किसी भी कारोबारी कमाई से, किसी भी सामान्य अर्थशास्त्र सिद्धांत से, किसी भी राजनीतिक दृष्टि से इतना अधिक लाभ कमाना सही नहीं है।
और बहुत ही ग़लत है यदि इसी दौर में गिर रहीं या गिरकर वैसी ही बनी रहीं कम अंतरराष्ट्रीय कीमतों को देखें।
पेट्रो कीमतों पर अध्ययन करते-करते एक रोचक तथ्य मिला - जो संभवत: कम प्रचलित है।
वह यह कि हमारे देश की एक ‘इंडियन क्रूड बास्केट’ है। यानी क्रूड आयात करने की कीमतें और उसे रिफाइन कर फिर देशभर में बेचने की कीमतों का संकेत।
इस बास्केट में, जहां-जहां से हम ऑइल ख़रीदते हैं - वे सभी देश आते हैं।
तो हमारे दो बेंचमार्क हैं - दुबई व ओमान पहला। ब्रेंट, दूसरा।
दुबई-ओमान के तेल को सावर क्रूड बेंचमार्क कहते हैं। यानी खट्टा।
ब्रेंट को स्वीट कहते हैं। मीठा।
वास्तव में ब्रेंट बहुत अच्छी श्रेणी का तेल है। हल्का है। प्रोसेस करने में बड़ा आसान। नाॅर्थ-सी के चार इलाकों से निकलता है। पानी के रास्ते पहुंचाया जाता है।
सल्फर की मात्रा कम होने से स्वीट कहलाता है। किन्तु आधी से अधिक दुनिया ब्रेंट चाहती है - इसीलिए भी स्वीट माना जाता है।
दुबई-ओमान भारी सल्फर वाला है। इसलिए खट्टा कहा जाता है।
किन्तु, हमारे लिए तो ऑइल बास्केट हमेशा ही खाली है। और तेल न खट्टा, न मीठा - हमेशा कड़वा ही है।
कड़वाहट भी लगातार बढ़ती कीमत पर!
कीमतों को लेकर सरकार के कई झूठ हैं। सबसे बड़ा है कि उन्होंने इसे ऑइल मार्केटिंग कंपनियों को सौंप दिया है। ऐसा होता तो प्रतिदिन कीमत तय करने के फॉर्मूले को कर्नाटक चुनाव के समय रोक कैसे दिया गया?
क्या इंडियन ऑइल, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम जैसी सरकारी कंपनियां स्वत: चिंतित हो गई थीं कि कर्नाटक चुनाव के दौरान कन्नड़ नागरिकों पर महंगे ईंधन का बोझ न पड़े? चूंकि वे महान् लोकतांत्रिक परम्परा का निर्वहन करने जा रहे थे?
सरकार का एक ताज़ा झूठ है कि वह अपनी कमाई कम करेगी तो लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाओं का काम रुक जाएगा। इसलिए वह लम्बे समय तक टिकाऊ रहने वाले उपाय पर सोच रही है।
इसमें एक्सप्लोरेशन और प्रोडक्शन कर रही ओएनजीसी व ऑइल इंडिया लि. से कम कीमतों पर सप्लाई की बात चल रही है।
पूर्ण सत्य यह है कि जिन भी कल्याणकारी योजनाओं की बात बताई जा रही है - वे उन्हीं 60-70 मंत्रालयों के अंतर्गत आती हैं - जो देश में पचास वर्षों से हैं। उनका अपना-अपना अलग बजट है।
वे मंत्रालय, ये योजनाएं किसी पेट्रो एक्साइज़ ड्यूटी की मोहताज नहीं हैं। इसलिए रुकने या धीमी पड़ने का प्रश्न ही नहीं।
दूसरा, कि ओएनजीसी या ऑइल इंडिया से 70 डॉलर प्रति बैरल की दर की सप्लाई का वार्षिक अनुबंध कर भी लिया तो भी एक ही बात है। दोनों कंपनियां सरकारी ही तो हैं। कितनी भी स्वायत्तता हो, पूरा पैसा हमारा ही तो लगा है। तो 70 डॉलर से भी वही हुआ - ढाई रुपए प्रति लीटर कीमत घटेगी। इतनी ही बढ़ी है। अनेक विशेषज्ञों ने, अलग-अलग विश्लेषणों में ऐसा बताया है। वैसे भी, पेट्रो इकोनॉमिक्स पर लिखने के लिए मैं क्वालिफाइड नहीं हूं।
मुझे तो केवल यही डरावना लगता है कि सरकार, ड्यूटी घटाने को तैयार नहीं। उन्हीं की या मित्रों की सरकारें 20 राज्यों में हैं - वहां वैट घटाने को तैयार नहीं। और सरकार की ही प्रोडक्शन कंपनियों से कम कीमत पर सप्लाई चाहती हैं। जो बोझ अंतत: हम पर ही अाएगा।
तो ऐसा क्यों कर रही है?
एक बात और।
हम बढ़ते जा रहे हैं। हमारी पेट्रो-डीज़ल खपत भी बढ़ती जा रही है।
हम लगभग सवा दो सौ मिलियन मैट्रिक टन क्रूड बाहर से मंगवा रहे हैं। जो कुल देश की खपत का 82% है। जबकि, इस सरकार ने जब कार्यभार संभाला था, यह 77% था।
कोई 1 लाख करोड़ का कुल बिल।
और 2 रु. घटाने हों - तो मात्र 30 हजार करोड़ रु. की ड्यूटी घटानी होगी। जो करीब पौने दो लाख करोड़ की अतिरिक्त ड्यूटी की कमाई की तुलना में तुच्छ है।
किन्तु इससे भी आगे?
क्या हमने कोई बहुत बड़ा प्रयास किया है आत्मनिर्भर बनने की दिशा में? आत्मनिर्भर नहीं हो सकते - किन्तु बहुत बड़ा कोई आइडिया?
क्या हमने अपनी सरकारी कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय ऑइल फील्ड्स में काम करने की छूट दी है? यदि उनसे कमाई ही करवानी है - तो खोल दीजिए उनके हाथ?
और चीन-भारत मिलकर विश्व के दूसरे-तीसरे क्रम के सबसे बड़े खरीददार हैं - तो क्या कोई सस्ता सौदा लम्बी अवधि के लिए नहीं किया जा सकता? जैसे, कुवैत था हमारा बड़ा सप्लायर। बाहर ही हो गया। सऊदी अरब सबसे बड़ा था - उसकी जगह ईरान हो गया। क्योंकि सस्ता दिया।
और भी बहुत कुछ हो सकता है। यदि सरकार, जनहित में सोचे और नागरिकों के प्रति नीयत साफ़ हो, तो।
सरकार, यानी स्टेट पावर, सबसे बड़ी शक्ति होती है। अर्थशास्त्र व राजनीतिशास्त्र को नागरिक शास्त्र के प्रति प्रतिबद्ध होकर बड़ा परिणाम देना चाहिए।
किन्तु, इसके लिए अलग ही ईंधन चाहिए। सरकार में वैसा ईंधन हो, असंभव है। किन्तु लाना ही होगा।
क्योंकि, ईंधन सबको चलाता है। सरकारों को भी एक ही तो लक्ष्य चाहिए- चलना। हमेशा चलना।
किन्तु अब नहीं।
क्योंकि, पहले हम विवश थे।
लागत से भी कम मूल्य पर खरीदने वाले, किसी भी तरह की शिकायत नहीं कर सकते।
तब हमें पेट्रोल हो या डीज़ल, सब कुछ कम कीमत पर मिलता था - यानी मूल कीमत का बोझ सरकार उठाती थी। जिसे सब्सिडी कहते हैं। यानी ‘राज सहायता’। बड़ा सामंती सा नाम!
अब नहीं। क्योंकि अब न तो पेट्रोल पर राज सहायता है, न ही डीज़ल पर।
तो हम साधारण नागरिकों का पूर्ण अधिकार है कि पूर्ण सत्य जानें। ताकि असत्य सामने आ सके।
पहला अर्धसत्य है - कि सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती। क्योंकि हमारे यहां सबकुछ अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल (क्रूड) की कीमतों से तय होता है। जो अचानक बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक चली गई।
पूर्ण सत्य यह है कि सरकार ही सबकुछ कर सकती है। पलक झपकते सरकार कीमतें कम कर सकती है। सर्वाधिक आसान उपाय है - सेंट्रल एक्साइज़ ड्यूटी घटाना।
स्वयं पेट्रोलियम मंत्रालय की एक पेट्रो प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल है। उसने बताया है कि यदि दिल्ली में 77.17 रु. प्रति लीटर पेट्रोल है - तो उसमें 19.48 रु. तो अकेले सेंट्रल एक्साइज़ ड्यूटी के हैं। यानी कुल कीमत का 25%। इसके अलावा 2.5% बेसिक कस्टम ड्यूटी है। राज्य का सेल्स टैक्स या वैट 21% तक है। डीलर तक, यानी पेट्रोल पम्प तक यह 37.65 रु. लीटर में पहुंचाया जाता है। यानी आधी कीमत से भी 1% कम।
और सरकार इसलिए घबरा रही है ड्यूटी घटाने के लिए - चूंकि उसे डर है उसका बजट बिगड़ जाएगा। एक के बाद एक बड़े-बड़े मंत्री यह दबाव बना रहे हैं कि इस ड्यूटी से तो सड़कें/पुल/ढांचे जैसे महत्वपूर्ण विकास कार्य हो रहे हैं। डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर बन रहा है। कैसे कम कर दें?
यह भी झूठ है।
तथ्यों को देखना होगा।
सभी जानते हैं कि मई 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही अनूठा संयोग हुआ। जो क्रूड की कीमतें 113 डॉलर प्रति बैरल थीं, वे तेज़ी से गिरने लगीं। गिरती चली गईं। और जनवरी 2015 में तो 50 डॉलर प्रति बैरल हो गईं!
किन्तु ‘असंभव के विरुद्ध’ ने हमेशा प्रश्न उठाया है कि इतनी कीमतों के घटने पर भी हम साधारण नागरिकों को घटी दरों का कोई विशेष लाभ नहीं दिया गया। उल्टे, कीमतें बढ़ा कर हमें त्रस्त किया गया। राज सहायता समाप्त कर दी - जो बहुत अच्छा कदम था। क्यों हम पूरा कर चुकाने वाले नागरिक, लागत से कम पर खरीदें? और क्यों हम स्वाभिमानी नागरिक राज सहायता की याचना करें?
किन्तु बढ़ी या बढ़ती जा रही कीमतें कोई केवल सब्सिडी समाप्ति का परिणाम नहीं थीं। बल्कि मोदी सरकार लगातार एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाती जा रही थी।
कोई नौ बार ड्यूटी बढ़ाई।
केवल 1 बार, 2 रु. की ड्यूटी घटाई।
क्यों?
क्या सरकार और उसकी ऑइल मार्केटिंग कंपनियां मुनाफ़ाखोर कारोबारी हैं - जो ग्राहक की अनिवार्य आवश्यकता का ग़लत फ़ायदा उठाना चाहती हंै? यदि नहीं, तो क्या सरकार हम साधारण नागरिकों की पेट्रोल-डीज़ल की विवशता से अपना ख़जाना भरना चाहती है?
जी, हां। ऐसा ही है।
केवल एक दृष्टि, उबाऊ किन्तु आंखें खोलने वाले आंकड़ों पर डालनी होगी :
2014-15 में केन्द्र ने 1 लाख 72 हजार करोड़ पेट्रो ड्यूटी से कमाए थे। राज्यों ने 1 लाख 60 हजार करोड़। पिछले वर्ष यह कमाई बढ़कर 3 लाख 34 हजार करोड़ रु. हो गई!
किसी भी कारोबारी कमाई से, किसी भी सामान्य अर्थशास्त्र सिद्धांत से, किसी भी राजनीतिक दृष्टि से इतना अधिक लाभ कमाना सही नहीं है।
और बहुत ही ग़लत है यदि इसी दौर में गिर रहीं या गिरकर वैसी ही बनी रहीं कम अंतरराष्ट्रीय कीमतों को देखें।
पेट्रो कीमतों पर अध्ययन करते-करते एक रोचक तथ्य मिला - जो संभवत: कम प्रचलित है।
वह यह कि हमारे देश की एक ‘इंडियन क्रूड बास्केट’ है। यानी क्रूड आयात करने की कीमतें और उसे रिफाइन कर फिर देशभर में बेचने की कीमतों का संकेत।
इस बास्केट में, जहां-जहां से हम ऑइल ख़रीदते हैं - वे सभी देश आते हैं।
तो हमारे दो बेंचमार्क हैं - दुबई व ओमान पहला। ब्रेंट, दूसरा।
दुबई-ओमान के तेल को सावर क्रूड बेंचमार्क कहते हैं। यानी खट्टा।
ब्रेंट को स्वीट कहते हैं। मीठा।
वास्तव में ब्रेंट बहुत अच्छी श्रेणी का तेल है। हल्का है। प्रोसेस करने में बड़ा आसान। नाॅर्थ-सी के चार इलाकों से निकलता है। पानी के रास्ते पहुंचाया जाता है।
सल्फर की मात्रा कम होने से स्वीट कहलाता है। किन्तु आधी से अधिक दुनिया ब्रेंट चाहती है - इसीलिए भी स्वीट माना जाता है।
दुबई-ओमान भारी सल्फर वाला है। इसलिए खट्टा कहा जाता है।
किन्तु, हमारे लिए तो ऑइल बास्केट हमेशा ही खाली है। और तेल न खट्टा, न मीठा - हमेशा कड़वा ही है।
कड़वाहट भी लगातार बढ़ती कीमत पर!
कीमतों को लेकर सरकार के कई झूठ हैं। सबसे बड़ा है कि उन्होंने इसे ऑइल मार्केटिंग कंपनियों को सौंप दिया है। ऐसा होता तो प्रतिदिन कीमत तय करने के फॉर्मूले को कर्नाटक चुनाव के समय रोक कैसे दिया गया?
क्या इंडियन ऑइल, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम जैसी सरकारी कंपनियां स्वत: चिंतित हो गई थीं कि कर्नाटक चुनाव के दौरान कन्नड़ नागरिकों पर महंगे ईंधन का बोझ न पड़े? चूंकि वे महान् लोकतांत्रिक परम्परा का निर्वहन करने जा रहे थे?
सरकार का एक ताज़ा झूठ है कि वह अपनी कमाई कम करेगी तो लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाओं का काम रुक जाएगा। इसलिए वह लम्बे समय तक टिकाऊ रहने वाले उपाय पर सोच रही है।
इसमें एक्सप्लोरेशन और प्रोडक्शन कर रही ओएनजीसी व ऑइल इंडिया लि. से कम कीमतों पर सप्लाई की बात चल रही है।
पूर्ण सत्य यह है कि जिन भी कल्याणकारी योजनाओं की बात बताई जा रही है - वे उन्हीं 60-70 मंत्रालयों के अंतर्गत आती हैं - जो देश में पचास वर्षों से हैं। उनका अपना-अपना अलग बजट है।
वे मंत्रालय, ये योजनाएं किसी पेट्रो एक्साइज़ ड्यूटी की मोहताज नहीं हैं। इसलिए रुकने या धीमी पड़ने का प्रश्न ही नहीं।
दूसरा, कि ओएनजीसी या ऑइल इंडिया से 70 डॉलर प्रति बैरल की दर की सप्लाई का वार्षिक अनुबंध कर भी लिया तो भी एक ही बात है। दोनों कंपनियां सरकारी ही तो हैं। कितनी भी स्वायत्तता हो, पूरा पैसा हमारा ही तो लगा है। तो 70 डॉलर से भी वही हुआ - ढाई रुपए प्रति लीटर कीमत घटेगी। इतनी ही बढ़ी है। अनेक विशेषज्ञों ने, अलग-अलग विश्लेषणों में ऐसा बताया है। वैसे भी, पेट्रो इकोनॉमिक्स पर लिखने के लिए मैं क्वालिफाइड नहीं हूं।
मुझे तो केवल यही डरावना लगता है कि सरकार, ड्यूटी घटाने को तैयार नहीं। उन्हीं की या मित्रों की सरकारें 20 राज्यों में हैं - वहां वैट घटाने को तैयार नहीं। और सरकार की ही प्रोडक्शन कंपनियों से कम कीमत पर सप्लाई चाहती हैं। जो बोझ अंतत: हम पर ही अाएगा।
तो ऐसा क्यों कर रही है?
एक बात और।
हम बढ़ते जा रहे हैं। हमारी पेट्रो-डीज़ल खपत भी बढ़ती जा रही है।
हम लगभग सवा दो सौ मिलियन मैट्रिक टन क्रूड बाहर से मंगवा रहे हैं। जो कुल देश की खपत का 82% है। जबकि, इस सरकार ने जब कार्यभार संभाला था, यह 77% था।
कोई 1 लाख करोड़ का कुल बिल।
और 2 रु. घटाने हों - तो मात्र 30 हजार करोड़ रु. की ड्यूटी घटानी होगी। जो करीब पौने दो लाख करोड़ की अतिरिक्त ड्यूटी की कमाई की तुलना में तुच्छ है।
किन्तु इससे भी आगे?
क्या हमने कोई बहुत बड़ा प्रयास किया है आत्मनिर्भर बनने की दिशा में? आत्मनिर्भर नहीं हो सकते - किन्तु बहुत बड़ा कोई आइडिया?
क्या हमने अपनी सरकारी कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय ऑइल फील्ड्स में काम करने की छूट दी है? यदि उनसे कमाई ही करवानी है - तो खोल दीजिए उनके हाथ?
और चीन-भारत मिलकर विश्व के दूसरे-तीसरे क्रम के सबसे बड़े खरीददार हैं - तो क्या कोई सस्ता सौदा लम्बी अवधि के लिए नहीं किया जा सकता? जैसे, कुवैत था हमारा बड़ा सप्लायर। बाहर ही हो गया। सऊदी अरब सबसे बड़ा था - उसकी जगह ईरान हो गया। क्योंकि सस्ता दिया।
और भी बहुत कुछ हो सकता है। यदि सरकार, जनहित में सोचे और नागरिकों के प्रति नीयत साफ़ हो, तो।
सरकार, यानी स्टेट पावर, सबसे बड़ी शक्ति होती है। अर्थशास्त्र व राजनीतिशास्त्र को नागरिक शास्त्र के प्रति प्रतिबद्ध होकर बड़ा परिणाम देना चाहिए।
किन्तु, इसके लिए अलग ही ईंधन चाहिए। सरकार में वैसा ईंधन हो, असंभव है। किन्तु लाना ही होगा।
क्योंकि, ईंधन सबको चलाता है। सरकारों को भी एक ही तो लक्ष्य चाहिए- चलना। हमेशा चलना।
Comments
Post a Comment