दो दशक पहले भारत में एक महान अक्रांति की शुरुआत हुई जिसे हम नई अर्थव्यवस्था कहते हैं। पांच फीसदी के आंकडे़ पर ही ठिठकी विकास दर को रफ्तार देने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश और सरकारी लाइसेंस कोटा परमिट राज की जकड़बंदी खत्म करने की घोषणा को बीसवीं सदी की सबसे अहम घटना माना गया। यह तब भी नजरअंदाज किया गया कि दल बदलने में माहिर भ्रष्ट भारतीय नेता और नौकरशाही सरकारी ताकत के मूल और चुनावी चंदे के अक्षय पात्र, लाइसेंस कोटा परमिट राज को त्यागने की तनिक भी उतावली न दिखाएंगे। अब तक सरकारें भले ही बदली हों, राज्यों में किसानी से शिक्षा तक की सारी राजकीय या निजी संस्थाओं में पुराने बिचौलियों की ही धमक कायम है। नई अर्थव्यवस्था का घोषित दर्शन यह था कि सरकारी नियम पारदर्शी होंगे तो भ्रष्टाचार कम होगा, मेहनती को मौका मिलेगा, नए उद्योग खुलेंगे, रोजगार बढ़ेंगे और फर्श से अर्श पर जा पहुंचे सफल नए कार्पोरेट्स उन ग्रामीण गरीबों के हक में अपना सामाजिक उत्तरदायित्व जरूर निभाएंगे जिनके बीच से वे आए हैं। 19वीं सदी में अमेरिका और यूरोप में यही हुआ।
भारतीय परिदृश्य में खेती अब भी अहम
भारतीय परिदृश्य में खेती अब भी अहम
आज निजी क्षेत्र में लक्ष्मी जी की महती कृपा भले ही खदानों की मिल्कियत, खनिज एवं तेल उद्योगों, व्यापार, निर्माण, उड्डयन और दूरसंचार सरीखे क्षेत्रों से हो रही है। वहां पैर जमाना और पसारना अंतत: सरकार की सद्भावना, वंशाधारित उद्योगजगत और उद्योगपतियों की भीतरी लोगों से खानदानी करीबी पर निर्भर है।पुराने हों कि नए, उद्योगपति सरकार से गरीबों की मदद के नाम पर छूटें पाकर भी सस्ते में हथियाये इलाके के खेतिहरों की सही भरपाई अपना कर्तव्य प्राय: नहीं मानते, पर जब चुनाव पास आते हैं तब राजनीतिक दल कठोर सचाई से टकराते हैं। गुजरात, राजस्थान के नतीजे उनको कह रहे हैं कि उज्ज्वला या बेटी बचाओ-पढ़ाओ, सरीखी आकर्षक सरकारी योजनाएं ग्रामीण इलाकों में लगभग बांझ साबित हो रही हैं जहां अंतत: खेती या मनरेगा ही अधिकतर परिवारों को कामऔर रोटी दे रहे हैं। युवा मर्दों के शहर पलायन, खेतीविनाशक पर्यावरण बदलावों, बिजली पानी की कमी और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं से दूर खेतिहर ग्रामीण समाज सरकार की कार्पोरेट क्षेत्र की दिलजोई और खेतिहरों की असल समस्याओं की उपेक्षा से बेहद नाराज है। इन सबका 2019 के आम चुनावों पर भी विपरीत असर पड़ सकता है यह जानकर सरकार ने इस बार बजट में कृषि क्षेत्र की बेहतरी के लिए कुछ बड़ी घोषणाएं की हैं। इनमें 23 फसलों की न्यूनतम खरीद कुल लागत के ऊपर 50 फीसदी तक बढ़ाने के प्रस्ताव को एक अभूतपूर्व मुहिम बताना प्रमुख है।
बजट 2018 और विशेषज्ञों की राय
बजट की बारीकियों को पढ़ने में सक्षम विशेषज्ञों, जानकारों का कहना है कि कृषि दाम निर्धारक सरकारी संस्था सीएसीपी की बनाई तालिका से जिस फार्मूले को छांटकर फसल की बुनियादी मौजूदा लागत कूती गई है, वह दोषपूर्ण साबित होती रही है। 2013-14 के बीच पूर्ववर्ती सरकार ने भी रबी की सभी फसलों की लागत पर 50 फीसदी बढोतरी की थी और तब फसलों पर किसान की मूल लागत कम होने से गेहूं की खरीद पर उसे 106 फीसदी और रेपसीड एवं सरसों के तेल पर 133 फीसदी अधिक दाम मिले थे। आज लागत बढ़ने से यह वृद्धि कुल 112 प्रतिशत और 88 प्रतिशत ठहरेगी। खरीफ की फसल अभी आनी है और उसमें भी किसान को पिछले सालों जितना लाभ देने के लिए आज सरकार को धान पर 11 प्रतिशत, कपास पर 18 प्रतिशत और ज्वार पर 41 प्रतिशत तक न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना होगा। इसके लिए आवंटित राशि ऊंट के मुंह में जीरा दिख रही है।
किसान, खेती और बाजार
फसलों का अंतिम दाम तय करने में और भी कई कारक शामिल हैं। मसलन मंडियों के बिचौलिये जिनको समर्थन मूल्य बढ़ोतरी का अंतिम लाभ मिलता रहा है। फिर फसलों की बिकवाली अंतत: माल के उस बरस की बाजार मांग पर भी निर्भर करती है। इसलिए फसल का सालाना समर्थन मूल्य फार्मूलाई बीजगणित की किसी बाबू आकलित गणना के आधार पर पहले से तय कर खुश होना नादानी है। हमारे किसानों की आर्थिक दशा सिर्फ गिरते दामों और खेती की लागत बढ़ने से ही नहीं गिरी है। किसानी उनके लिए आज ऐसा घाटे का सौदा बन चली है जो सरकारी आकलन के अनुसार 1971 से 2011 के दरमियान ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कुल आय में खेती का योगदान दो तिहाई से घट कर सिर्फ एक तिहाई रह गया है और 2003 से 2013 के बीच किसानों की खेती से तो सिर्फ 35 फीसदी आय ही बढ़ी जबकि पशुपालन से होने वाली आय में 200 प्रतिशत उछाल आ गया।
इधर कई राज्यों में मांसाहार के खिलाफ जो नासमझ हिंसक सांप्रदायिक अभियान चलाए गए उनकी वजह से सूखे दुधारू पशुओं की बिक्री और नए दुधारू पशुओं की खरीद पर गहरा दुष्प्रभाव पाया गया। महाराष्ट्र में किसान अब अपने उस सूखे गोधन को लावारिस छोड़ने पर बाध्य हैं जिसे पहले बेचकर उसमें थोड़ा सा अतिरिक्त पैसा जोड़कर नए दुधारू पशु खरीदते थे। इसके साथ ही नोटबंदी की कृषि मंडियों पर मार, ग्रामीण मार्केटिंग का कमजोर ढांचा, समय पर बैंक ऋण या फसल भंडारण के लिए गोदामों का उपलब्ध न होना और अगली फसल के लिए जरूरी सामग्री खरीदने से लाचार किसानों के पास ताजा फसल को रोक कर उसके वाजिब दाम पर भावताव करो का समय नहीं। खुद नीति आयोग ने भी देश के 79 प्रतिशत किसानों को समस्या निराकरण के लिए लगातार एमएसपी बढ़ोतरी के सुझाव से असंतुष्ट पाया।
गांव का विकास हो अहम एजेंडा
हमारे देश में खेती से इतर उपक्रमों की दो तरह की कोटियां हैं। पहली, जो सरकारी क्षेत्र से ज्यादा मदद लिए बिना भी खड़ी की गई हैं जैसे कि आइटी तथा फार्मा उपक्रम। दूसरी कोटि में वे उपक्रम हैं जिनको लगाने के लिए वह जमीन, जंगल, जल चाहिए जो अक्सर ग्रामीण इलाकों में है। गांवों से खनिज क्षेत्र, निर्माण क्षेत्र और भू अधिग्रहण के लिए ग्रामीणों की सहमति के बजाय आज भी राज्य मंत्रालयीन सहमति और विभागीय परमिट अनिवार्य हैं। लिहाजा ऐसे अधिकतर उपक्रमों का भाग्योदय सरकारी संरक्षण में जमीनी खरीद फरोख्त और सरकारी निर्माण कार्यों के मार्फत हो जाता है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था का योगदान सकल आय में घटा और शहरीकरण बढ़ा है। खेती मुर्झाई है और वे उद्योग फले फूले हैं जिनके सिंहद्वार की मुख्य चाभी सरकारी नियामकों और विभागीय मंत्रियों के पास है। तिस पर नोटबंदी और फिर अफरातफरी में लागू जीएसटी ने किसानी की कई नियामक संस्थाओं का कचूमर निकाल दिया है। घोटालों में चिन्हित किंतु वोटबैंकों के धनी जिन नेताओं ने अदालत से बरी हो कर रातोंरात पाला बदला और सत्ता से मधुर रिश्ते बनाए वे आज किसानों के हितों की रक्षा के लिये 500 करोड़ की राशि से तगड़ा एमएसपी दिलवाने की बात तो कर रहे हैं, पर किसान बेचारा जानता है कि अंतत: इसका दारोमदार राज्य सरकारों पर रहेगा। वे ही तय करेंगी कि वे कब माल खरीदें और कब कैसे बाजार में बिकवाली पर उतरें। कुमाऊंनी कहावत के शब्दों में यह तो इसकी टोपी उसके और उसकी टोपी इसके सर रखने वाली बात हुई।
Comments
Post a Comment