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वोटर भेड़ ही बने रहे तो ऊन के साथ चमड़ी भी उधेड़ लेंगे राजनीतिक दल

राजस्थान चुनाव की दस्तक के साथ हवा में उछल रहे नारों-जुमलों ने एक बार फिर मधु लिमये की बात याद दिला दी- 'जनता उस भेड़ की तरह है जिसकी चमड़ी पर से हम राजनीतिक दल वोटों की ऊन काटते हैं। ऊन काटे तब तक तो ठीक, लेकिन कुछ दल चमड़ी तक काट लेते हैं।' यहां भी राजनीतिक कुचक्र से बचाने की भावना भले ही हो, लेकिन मतदाता को भेड़ कहा गया। छह दशक की चुनावी यात्रा में यह साफ हो गया है कि राजनीतिक दल वोटर को क्या मानते हैं। जीत की जुगत के लिए हर बार बुनते हैं जुमले-नारे। गरीबी हटाओ, सिंहासन खाली करो, शाइनिंग इंडिया, बच्चा-बच्चा राम का.. जैसे नारे और उनका हश्र प्रमाण है कि राजनीतिक विचारधाराएं मृतप्राय: हो चुकी हैं। चुनावी सभाओं में साम्यवाद, समाजवाद, धार्मिक सहिष्णुता जैसे मुद्दों पर होने वाली बातें इतिहास बन गई है। उनकी जगह अब है- छद्म राष्ट्रवाद, धर्म-संप्रदाय, समुदाय में ध्रुवीकरण के जरिये पैठ बनाने के प्रयास। जो दल जिस शिद्दत से इन भावनाओं को भुना सका, धन-बाहुबल का बेहतर मिश्रण कर सका, वह सदन के हां-पक्ष में पहुंचा। बात जब राजस्थान विधानसभा की हैं तो हालात एकांतरा बुखार जैसी है। ऐसा बु...
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अनुच्छेद 35ए, जम्मू-कश्मीर में अलग समुदाय का निर्माण; आखिर एक ही देश में इतनी संवैधानिक विषमता क्यों?

संविधान के कुछ जानकार कश्मीर के अलगाववाद के लिए अनुच्छेद 370 से अधिक अनुच्छेद 35ए को जिम्मेदार मानते हैं। अनुच्छेद 35ए संविधान का एक अदृश्य और रहस्यमय भाग है। यह संविधान के मूल पाठ में शामिल नहीं है। इसे परिशिष्ट के रूप में जोड़ा गया है, लेकिन यह जम्मू-कश्मीर राज्य की शासन योजना का आधार स्तंभ है। संविधान का मूल उद्देश्य देश को एकजुट करना होता है, किंतु इसकी भूमिका इसके उलट है। यह जम्मू-कश्मीर में एक अलग समुदाय का निर्माण करता है जिन्हें स्थाई नागरिक कहा जाता है और केवल उन्हें ही राज्य सरकार को चुनने से लेकर संपत्ति खरीदने का अधिकार हासिल है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि संविधान के इतने महत्वपूर्ण संशोधन में संसद की कोई भूमिका नहीं थी। न तो उसे सदन के पटल पर रखा गया और न ही उस पर बहस या मतदान हुआ। इसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 35ए में उल्लिखित विषयों पर बनाए गए कानून भारत के संविधान के अनुरूप होने जरूरी नहीं हैं। उनका उल्लंघन भी हो सकता है और अंतर्विरोध होने पर भारत के संविधान की जगह इन कानूनों को मान्यता दी जाएगी। इस अधिकार के तहत विधानसभा को जम्मू-कश्मीर के स्थाई नागरिकों की परिभाषा त...

जानिए, क्यों चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दल चंदा लेना पसंद नहीं कर रहे हैं

राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे को पारदर्शी बनाने और राजनीति में कालेधन के इस्तेमाल पर लगाम लगाने के इरादे से शुरू किए गए चुनावी बांड की खरीद के आंकड़े यही बयान कर रहे हैं कि उनसे अभीष्ट की पूर्ति शायद ही हो। यह उत्साहजनक नहीं कि चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दलों को चंदा देने का सिलसिला गति पकड़ता नहीं दिख रहा है। अभी तक करीब 470 करोड़ रुपये के कुल 1062 बांडों की ही खरीद हुई है। जब माना यह जा रहा था कि समय के साथ चुनावी बांडों के जरिये चंदा देने की प्रवृत्ति बढ़ेगी तब संकेत यही मिल रहे हैं कि उसमें कमी आ रही है। चुनावी बांड की खरीद के लिए अभी तक चार बार दस-दस दिन की समय अवधि घोषित की जा चुकी है, लेकिन इस दौरान खरीदे गए बांडों की संख्या के साथ उनकी राशि भी घटती दिखी। पहले चरण यानी मार्च में जहां 222 करोड़ रुपये के 520 बांड बिके वहीं चौथे चरण यानी जुलाई में लगभग 32 करोड़ रुपये के मात्र 82 बांड। यह आंकड़ा तो यही रेखांकित कर रहा है कि लोग चुनावी बांडों से चंदा देने में कतरा रहे हैं। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि राजनीतिक दल ही इस तरीके से चंदा लेना पसंद नहीं कर रहे हैं। यदि...

खुश रहें! न अच्छे दिन आए, न अच्छे दिन आएंगे

साफ नीयत सही विकास’ के साथ ईमानदारी और कामकाजी सरकार का जिक्र। ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ महज जुमले के साथ कांग्रेस का हमला। ‘हम में है दम अब आपके भरोसे नहीं’ के नारे के साथ नीतीश समेत एनडीए सहयोगियों का दम-खम। ‘सब साथ तो  फिर सत्ता हमारे हाथ’ के साथ विपक्ष का नारा। तेवर हर किसी के, पर मुद्दे गायब। तो क्या ये मान लिया जाए कि धर्म के आसरे ध्रुवीकरण की राजनीति की उम्र पूरी हो चुकी है। हिन्दुत्व की चाशनी में सोशल इंजीनियरिंग का खेल खत्म हो चला है। मुद्दों की फेहरिस्त कोई गिना दे पर पूरी कोई नहीं करता, ये सच मोदीकाल की देन है। ईमानदारी का राग या घोटालों के दाग की परिभाषा बदल चुकी है। यानी पहली बार देश प्रिंट मीडिया और टीवी मीडिया से होते हुए डिजिटल मीडिया या कहें सोशल मीडिया के आसरे हर मुद्दे पर इतनी बहस कर चुका है कि छुपाने के लिए किसी दल के पास कुछ नहीं और बताने के लिए किसी नेता के पास कुछ नया नहीं है। फिर भी 2019 आएगा। चुनाव होंगे। लोकतंत्र का राग गाया जाएगा और वह मुद्दे जिन्हें कभी नेहरू के सोशलिज्म तले देश ने देखा-समझा। लालबहादुर शास्त्री के ‘जय जवान जय किसान’ के नारे को सुना। ...

क्या है पेट्रोल-डीज़ल की चढ़ती कीमतों के पीछे का झूठ???

‘सेमल वृक्ष कितना बड़ा क्यों न हो, उससे हाथी नहीं बांधा जा सकता।’ -  नीतिशास्त्र ‘सरकार का सत्तावृक्ष कितने ही बड़े बहुमत से क्यों न हो, उसे नागरिकों का हित नहीं बांध सकता।’ - राजनीतिशास्त्र हम वर्षों से यह झूठ सुनते आ रहे हैं। सहन करते आ रहे हैं।  मानते जा रहे हैं। किन्तु अब नहीं। क्योंकि, पहले हम विवश थे। लागत से भी कम मूल्य पर खरीदने वाले, किसी भी तरह की शिकायत नहीं कर सकते। तब हमें पेट्रोल हो या डीज़ल, सब कुछ कम कीमत पर मिलता था - यानी मूल कीमत का बोझ सरकार उठाती थी। जिसे सब्सिडी कहते हैं। यानी ‘राज सहायता’। बड़ा सामंती सा नाम! अब नहीं। क्योंकि अब न तो पेट्रोल पर राज सहायता है, न ही डीज़ल पर। तो हम साधारण नागरिकों का पूर्ण अधिकार है कि पूर्ण सत्य जानें। ताकि असत्य सामने आ सके। पहला अर्धसत्य है - कि सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती। क्योंकि हमारे यहां सबकुछ अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल (क्रूड) की कीमतों से तय होता है। जो अचानक बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक चली गई। पूर्ण सत्य यह है कि सरकार ही सबकुछ कर सकती है। पलक झपकते सरकार कीमतें कम कर सकती है। सर्वाधिक आसान उपाय है - सेंट्रल एक्सा...

किसान सरकारों को बोझ क्यूँ लगते हैं ?

किसी भी देश की तरक्की का रास्ता खेत -खलिहानो से होकर जाता है।  हमारे देश में सबसे दयनीय हालत किसान की  है। वो किसान जो संसार का पेट भरता है आज खुद भूखा रहने पर मजबूर है। कभी मौसम की मार, कभी समय पर बिजली-पानी का न मिल पाना, कर्ज के बोझ तले दबा हुआ। फटे हाल उम्मीद की नज़रों से देखता हुआ लेकिन जो आता है इस्तेमाल करके चला जाता है। ऐसी हालत क्यूँ हुई किसान की ? कभी कोई नहीं सोचता।  क्यों ? क्यूंकि इनसे पार्टी फण्ड के नाम पर कभी किसी को पैसा नहीं मिलता। नेताओं की झोली नहीं भरती। पिछले तीन सालों में हमारे देश तमाम राज्य सरकारों ने 17लाख करोड़ रु संघठित क्षेत्र में टैक्स माफ़ी के रूप में दे दिया जबकि किसानो को यदि सम्पूर्ण कर्ज माफ़ी दी जाय तो भी 12. 6 लाख करोड़ रु का खर्च आएगा। लेकिन १२. ६ लाख करोड़ के लिए सोचना पड़ेगा की इतना पैसा आएगा कहाँ से ? सारे नेतागण बोल उठेंगे कि ये हो जायेगा वो हो जायेगा। कथित अर्थशास्त्री अपने वातानुकूलित कमरों में बैठ कर किसान की लागत का आंकलन करते है। SBI के अधिकारी फण्ड की कमी का रोना रोते हैं। पर इस पर ध्यान कोई भी जानबूझकर नहीं देना चाहता कि हमने ...

भारतीय मुस्लिमों को पाकिस्तानी कहना अपराध तो उनका क्या जो कहते हैं- पाकिस्तान जिंदाबाद

एआइएमआइएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी अपने विवादित बयानों के कारण हमेशा चर्चा में रहते हैं। प् हले वह लोकसभा में अपने एक विवादित वक्तव्य के कारण चर्चा में रहे। उनके अनुसार, ‘भारत में रहने वाले मुसलमानों ने जिन्ना के विचारों (दो राष्ट्र सिद्धांत) को खारिज कर दिया था। ऐसे में जो लोग भारतीय मुस्लिमों को आज भी ‘पाकिस्तानी’ कहकर बुलाते हैं, उन्हें गैर- जमानती कानून के तहत सजा मिलनी चाहिए।’ देश के मुसलमानों के संदर्भ में जो कुछ ओवैसी ने कहा वह पूरा सच नहीं है। नि:संदेह, किसी भी भारतीय को ‘पाकिस्तानी’ कहना उसे कलंकित करने जैसा है। उसका एक स्पष्ट कारण भी है। उनका ताजा विवादित बयान यह था कि जम्मू के सुंजवां में आंतकी हमले में जिन पांच कश्मीरी मुसलमानों ने अपना बलिदान दिया है उनके बारे में बात क्यों नहीं हो रही है? देश के मुसलमानों के संदर्भ में जो कुछ ओवैसी ने कहा वह पूरा सच नहीं है। नि:संदेह, किसी भी भारतीय को ‘पाकिस्तानी’ कहना उसे कलंकित करने जैसा है। उसका एक स्पष्ट कारण भी है। पाकिस्तान अपने जन्म से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर भारत से युद्ध कर रहा है। हर दूसरे दिन सीमापार से होने वाले आतंकवा...