आज के संदर्भ में गांधी मात्र एक राजनैतिक मजबूरी का नाम है। आज स्थिति यह है कि भगवान को नकारा जा सकता है लेकिन गांधी को नहीं। मान लें कि pk फिल्म में शिव के स्थान पर कलाकार गांधी के रूप में होता और नायक के मन में यह बात होती कि गांधी ने आजादी दिलाई और मेरा रिमोट भी यही दिलाएंगे (सत्याग्रह से) तो कैसा दृश्य होता। फिल्म बोर्ड तक पास नहीं करता वह दृश्य। सारे काग्रेसी गांधी और गोडसे को लेकर अति असहिष्णु हैं। इस त्थ्य पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता कि गांधी के उभरने से अंग्रेजों को हिन्दु-मुसलमान के बीच की खाई को चौड़ा करने वाला एक औजार मिल गया और तुष्टीकरण की नीति की नींव पड़ी।
वास्तव में संघ की असली देन यह है कि इसने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना को संवैधानिक ढांचे भीतर पोषित किया और मरने नहीं दिया। दिशाहीन अतिवादी हिन्दु जो भी संघ से जुड़े (उन्हें संघ ही सबसे करीब वैचारिक संगठन लगा) उनकी अतिवादी धार को संघ ने कुंद कर दिया जिससे वे लोकतांत्रिक रास्ते पर चल कर अपने ध्येय को पहचान पाए (सेकुलर उकसाहटों के बावजूद)।
जहां तक मानवीय मूल्यों का प्रश्न है, गांधी से कोई मतभेद का सवाल नहीं, वे गांधी की देन नहीं, वैदिक मूल्य हैं। गांधी एक राजनैतिक प्रयोग के तौर पर भारत में पूरी तरह नकारे हो चुके हैं और यह काम कांग्रेस ने किया है। गोडसे ने गांधी के मात्र शरीर पर गोली चलाई थी।
वास्तव में संघ की असली देन यह है कि इसने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना को संवैधानिक ढांचे भीतर पोषित किया और मरने नहीं दिया। दिशाहीन अतिवादी हिन्दु जो भी संघ से जुड़े (उन्हें संघ ही सबसे करीब वैचारिक संगठन लगा) उनकी अतिवादी धार को संघ ने कुंद कर दिया जिससे वे लोकतांत्रिक रास्ते पर चल कर अपने ध्येय को पहचान पाए (सेकुलर उकसाहटों के बावजूद)।
जहां तक मानवीय मूल्यों का प्रश्न है, गांधी से कोई मतभेद का सवाल नहीं, वे गांधी की देन नहीं, वैदिक मूल्य हैं। गांधी एक राजनैतिक प्रयोग के तौर पर भारत में पूरी तरह नकारे हो चुके हैं और यह काम कांग्रेस ने किया है। गोडसे ने गांधी के मात्र शरीर पर गोली चलाई थी।
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