आने वाली पीढ़ियां सहज विश्वास ही नहीं कर पाएंगी कि ऐसा हमारे न्यायिक इतिहास में घटा।
अाखिर ये हुआ क्या?
सुप्रीम कोर्ट के चार सर्वाधिक वरिष्ठ जज, यदि ऐसा करते हैं तो निश्चित ही उनके पास बहुत, बहुत ही बड़ा कारण रहा होगा।
किन्तु जो उन्होंने बताया है, उसके अनुसार तो यह केवल महत्वपूर्ण मुकदमों को बांटने में हो रहे भेदभाव का विवाद है। यानी चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा पर चार जजों ने यह आरोप लगाया है कि वे अपनी पसंद से मुकदमे लिस्ट करते हैं। वरिष्ठता को अनदेखा कर।
क्या इससे देश का लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा?
जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर के आवास पर पत्रकारों को बुलाकर किए गए इस विस्फोट के अनेक पहलू हैं। जस्टिस चेलमेश्वर खुली किताब हैं। आंध्र के कृष्णा जिले में जन्मे चेलमेश्वर के पिता मछलीपट्नम में वकील थे। इस ज़मीनी पृष्ठभूमि के कारण ही वकालत और विद्रोह उनका नैसर्गिक स्वभाव है। इसलिए उनका खुलापन आश्चर्यजनक नहीं था। उनके ठीक अलग, चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा ओडिशा से हैं। वे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे जस्टिस रंगनाथ मिश्रा के भतीजे हैं।
जस्टिस चेलमेश्वर, वास्तव में जस्टिस मिश्रा से भी वरिष्ठ होते - यदि उन्हें सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने में देर न की गई होती। ये जस्टिस मिश्रा से उम्र में कोई चार माह बड़े हैं। वे इससे पहले चीफ़ जस्टिस टी एस ठाकुर को भी विरोध में कड़े पत्र लिख चुके हैं। और प्रसिद्ध है ही कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने जब जजों की नियुक्ति करने वाले जजों की ही सदस्यता वाले कॉलेजियम को तोड़ कर, नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइन्टमेंट कमीशन बनाया -तो उसे रद्द करने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच में जस्टिस चेलमेश्वर एकमात्र ऐसे थे- जिन्होंने उस फैसले के विरुद्ध लम्बी-चौड़ी असहमति लिखी। वे कॉलेजियम के विरुद्ध हैं। और कह चुके हैं कि जब तक अाप चीफ़ जस्टिस बनने वाले भाग्यशाली नहीं होते, तब तक किसी को अापके द्वारा चुने गए या खारिज किए गए जज उम्मीदवार के बारे में पता नहीं चलता!
किन्तु यहां आकर एक विरोधाभास है। जिन जजों ने जस्टिस चेलमेश्वर के साथ आज पत्रकारों से बात की, उनमें वे भी हैं जिन्होंने कॉलेजियम द्वारा जज प्रत्याशी को खारिज क्यों किया गया - इसे सार्वजनिक करने का विरोध किया। खुलेपन और जवाबदेही को बढ़ाने के लिए चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने ही ऐसा सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर सार्वजनिक करने का निर्णय लिया था। जस्टिस चेलमेश्वर व अन्य इस तरह तो खुलेपन के विरुद्ध हो गए? या कि चीफ जस्टिस के विरुद्ध?
दो मामले है -जिसके परिणामस्वरूप आज यह अप्रिय, अजीब और अभूतपूर्व स्थिति आई है।
पहला मामला लखनऊ के मेडिकल कॉलेज छात्र भर्ती घोटाले से संबंधित है। जिसे जस्टिस चेलमेश्वर ने ‘गंभीर’ मानकर पांच सदस्यीय पीठ गठित कर दी थी। और जिसे चलती कोर्ट में रोकने के लिए चीफ जस्टिस ने एक स्लिप भेजी थी। किन्तु जस्टिस चेलमेश्वर नहीं माने। किन्तु चीफ जस्टिस ने अगले ही दिन नई बंेच से उसे खारिज कर दिया। चूंकि उस घोटाले में गंभीर आरोप न्यायपालिका पर भी थे, इसलिए विवाद और गहरा गया। ओडिशा के दलाल, हवाला कारोबारी शामिल थे। ओडिशा हाईकोर्ट जज कुद्दुसी की उसमें भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग के लिए गिरफ्तारी हुई थी। और याचिका करने वाला कह चुका था कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा भी ओडिशा से हैं, इसलिए वह उनकी बेंच में केस लगाना नहीं चाहता। इस बात पर भारी रोष था। बाद में कोर्ट ने उस पर कड़ी आपत्ति लेते हुए 25 लाख रु. का जुर्माना लगाया।
तब ‘चीफ जस्टिस इज़ द मास्टर ऑफ द रोस्टर,’ ‘मास्टर ऑफ द कोर्ट’ ये थ्योरी दी गई। जो जजों को कौन-से, कब, कितने केस आवंटित किए जाएं, इसे चीफ जस्टिस का ही विशेषाधिकार स्थापित करने वाली थी।
चारों जजों का सर्वाधिक रोष, विरोध और तर्क आज इसी मुद्दे को लेकर रहा।
दूसरा मामला सीबीआई स्पेशल जज जस्टिस ब्रजगोपाल हरिकिशन लोया की रहस्यमय मृत्यु का है। इसकी जांच की मांग को लेकर लगी याचिका बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्वीकार की। इसे अचानक सुप्रीम कोर्ट ने सुनना शुरू कर दिया। चूंकि जस्टिस लोया अतिविवादित सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ कांड की सुनवाई कर रहे थे, इसलिए यह विवाद और गहरा गया। चूंकि इसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कई प्रभावी आरोपी बनाए गए हैं।
इसीलिए इसके राजनीतिक अर्थ ढूंढे जा रहे हैं। जो स्वाभाविक है।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के बाद जस्टिस रंजन गोगोई चीफ जस्टिस बनेंगे। चूंकि जस्टिस चेलमेश्वर तो चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा से पहले ही रिटायर हो जाएंगे। इसी साल जून में।
इस बिन्दु का इसलिए महत्व है चूंकि जस्टिस गोगोई को छोड़कर, आज प्रेस के सामने आने वाले तीनों जज और जिनके विरोध में वे बोले यानी चीफ जस्टिस - सभी इसी वर्ष 2018 में रिटायर हो जाएंगे।
यानी इनमें से किसी के पास भी कोई पर्सनल एजेंडा नहीं है। इनमें से कोई भी किसी पद की लड़ाई नहीं लड़ रहा। रही बात जस्टिस गोगोई की, तो वे वरिष्ठता के क्रम में अकेले हैं। और बनेंगे ही।
तो संभवत: यह प्रतिष्ठा की लड़ाई हो। कि वे इतने अनुभवी हैं। और ज़िंदगीभर वकालत से अकूत संपत्ति और खुलापन पाने की अपेक्षा न्याय करने के लिए जुटे हुए हैं - तो राष्ट्रीय महत्व से बड़े मुकदमे उन्हें क्यों नहीं दिए जा रहे? जो वाजिब है।
क्योंकि ‘लोकतंत्र’ को कोई ख़तरा इस मामले में नहीं दिख रहा। न ही कोई बड़ा भ्रष्टाचार सामने आ रहा है।
हां, यदि चारों जज गरिमा के कारण केवल एक सीमा तक ही जाकर बात कर रहे हों - तो पता नहीं।
राजनीति या सरकार का इस मामले में कोई भी हस्तक्षेप गंभीर गलती और स्वार्थी तत्वों का न्यायिक व्यवस्था में प्रवेश माना जाएगा। इसलिए जो भी पार्टियां-नेता इसे राष्ट्रीय चिंता बताकर ‘महाभियोग’ लाने का संकेत दे रहे हैं - वे डरावना काम करने जा रहे हैं। न तो कोई अभियोग है - कि जिस पर महाभियोग चले - न कोई तथ्य।
जस्टिस चेलमेश्वर ने भी महाभियोग चलाए जाने के प्रश्न पर ना या हां नहीं कहा। बल्कि ‘राष्ट्र तय करेगा’ जैसा उत्तर दिया है।
इससे स्पष्ट है, वे ऐसा चाहते होंगे। इससे उनका रोष स्पष्ट हो रहा है।
किन्तु यह एक दृश्य ऐसा है कि लाख गरिमा का सोचने के बावजूद भविष्य के लिए डराता है। कल से हाईकोर्ट और फिर जिला कोर्ट में भी यदि विरोध में जज मीडिया के समक्ष जाने लगे तो?
खुलापन श्रेष्ठ है। किन्तु कुछ कार्य ही ऐसे हैं - जिनमें मर्यादा स्वत: और स्वाभाविक होती है। जैसे न्यायपालिका। जैसे सेना। जैसे गुप्तचर विभाग।
यदि जस्टिस चेलमेश्वर का ही एक वाक्य देखें तो उपयोगी होगा। इंटरनेट पर कुछ भी आपत्तिजनक लगने पर गिरफ्तारी का अधिकार देने वाली क्रूर धारा 60 ए को रद्द करने वाले प्रसिद्ध फैसले में उन्होंने अच्छी पंक्ति लिखी थी - कि असहमति, समर्थन या अपने विचार को आगे बढ़ाना और भड़काना - इनमें से शुरुआती दोनों तरीके चाहे जितने अलोकप्रिय हों - बने रहने चाहिए। बढ़ावा देना चाहिए। संरक्षण देना चाहिए। किन्तु तीसरे तरीके को तो रोकना ही होगा।
क्या इस तरह का कोई उपाय रुष्ट जज, चीफ जस्टिस के मामले में लागू नहीं कर सकते थे? चीफ जस्टिस नहीं सुन रहे थे तो राष्ट्रपति- जो उन्हें नियुक्त करते हैं - तक जा सकते थे।
पता नहीं, कितने प्रयास हुए? कुछ तो होगा, कि ये विद्वान जज रुके नहीं।
यदि वास्तव में वो ‘कुछ’ बहुत ही धमाकेदार है - या असहनीय है - तो सामने लाना चाहिए।
राष्ट्र के लिए, लोकतंत्र के लिए गंभीर ख़तरे पूरी तरह सामने आएं असंभव है। किन्तु लाने ही होंगे।
चूंकि राष्ट्र से ही हम हैं। और हमसे ही राष्ट्र है।
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