दोस्तों, महंगाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है जिसके लिए हम सरकारों को दोषी ठहराते आ रहे हैं। पर क्या कभी सोचा है इसके लिए हमारी जीवन दोषी है। हम जिस प्रकार पाश्चात्य संस्कृति का अनुशरण कर रहे हैं वो न सिर्फ हमारी पुरातन संस्कृति के लिए बल्कि वो हमारे धन और जीवन दोनों को नुकशान पहुंचा रही है। कुछ कारण जो मेरी नजर में हैं वो में बता रहा हूँ।
आजकल नहाने का साबुन अलग मिलेगा और हाथ धोने का साबुन अलग।
पहले तो साबुन ही नहीं था। था भी तो केवल नहाने का। हाथ धोने के लिए राख या साफ़ मिटटी इस्तेमाल करते थे और कम से कम बीमार होते थे।
टॉयलेट साफ़ करने का हार्पिक अलग और बाथरूम धोने का अलग। और हाँ टॉयलेट में खुशबू वाली टिकिया अलग से मिलेगी।
क्यों भाई एसिड में क्या दिक्कत है।
कपडे धोने के लिए तीन तरह के वाशिंग पॉवडर होने जरूरी हैं। एक मशीन से धोने के लिए , एक हाथ से धोने के लिए और एक कपड़ों पर कोई दाग है तो वेनिश।
पहले तो एक से ही काम चला लेते थे। उससे पहले केवल पानी से ही साफ करते थे।
हाथ धोने के लिए भी लिक्विड आने लगे हैं क्यूंकि विज्ञापन वाले बोलते हैं कि साबुन से बैक्टीरिआ ट्रांसफर होते हैं क्या भैया कीड़े मारने की दवा में भी कीड़े पड़ते हैं क्या ?
बाल धोने के लिए सिर्फ शैम्पू नहीं कंडीशनर भी चाहिए।
हमारे बुजुर्ग तो मुल्तानी मिटटी से ही सर धोते थे। में तो आज भी धोता हूँ और सम्पू वालों से अच्छे हैं मेरे बाल।
फेसवाश , बॉडी लोशन , डिओडरंट, हैरजेल, सनस्क्रीन क्रीम, गोरा होने की क्रीम इत्यादि।
बच्चों का होर्लिक्स, बच्चों की माँ का अलग पापा का अलग।
दूध तो अपने आप ही शक्ति की परिभाषा है भाई इसकी शक्ति कोई सुपलेमेंट कैसे बढ़ा सकता है जबकि ये खुद दूसरे सप्लीमेंट्स की शक्ति बढ़ा सकता है।
साँस की बदबू दूर करने के लिए सिर्फ ब्रश काफी नहीं माउथ वाश से कुल्ले करना जरुरी है।
हमारे बुजुर्ग तो केवल नीम या किसी दूसरे पेड़ की दातुन करते थे और उनके दांत कोलगेट वालों से बहुत ज्यादा अच्छे होते थे। अगर किसी भाई के दांतों में कोई दिक्क्त है तो वो अब दातुन करके देखे।
खाने के लिए चिप्स, कुरकुरे, पिज़्ज़ा बर्गर चाहिए।
इतना सब खुद करते हैं और दोष सरकारों को देते हैं।
सोचकर सोचो फिर कहना क्या कर रहे हैं गलती किसकी है।
साधारण जीवन सैली से जहाँ एक परिवार का खर्चा आठ से दस हज़ार में चल सकता है वही आधुनिक जीवन सैली से चालीस हज़ार में खर्च चल पायेगा वो भी बड़ी मुश्किल से।
हरेंद्र सिंह चौधरी
आजकल नहाने का साबुन अलग मिलेगा और हाथ धोने का साबुन अलग।
पहले तो साबुन ही नहीं था। था भी तो केवल नहाने का। हाथ धोने के लिए राख या साफ़ मिटटी इस्तेमाल करते थे और कम से कम बीमार होते थे।
टॉयलेट साफ़ करने का हार्पिक अलग और बाथरूम धोने का अलग। और हाँ टॉयलेट में खुशबू वाली टिकिया अलग से मिलेगी।
क्यों भाई एसिड में क्या दिक्कत है।
कपडे धोने के लिए तीन तरह के वाशिंग पॉवडर होने जरूरी हैं। एक मशीन से धोने के लिए , एक हाथ से धोने के लिए और एक कपड़ों पर कोई दाग है तो वेनिश।
पहले तो एक से ही काम चला लेते थे। उससे पहले केवल पानी से ही साफ करते थे।
हाथ धोने के लिए भी लिक्विड आने लगे हैं क्यूंकि विज्ञापन वाले बोलते हैं कि साबुन से बैक्टीरिआ ट्रांसफर होते हैं क्या भैया कीड़े मारने की दवा में भी कीड़े पड़ते हैं क्या ?
बाल धोने के लिए सिर्फ शैम्पू नहीं कंडीशनर भी चाहिए।
हमारे बुजुर्ग तो मुल्तानी मिटटी से ही सर धोते थे। में तो आज भी धोता हूँ और सम्पू वालों से अच्छे हैं मेरे बाल।
फेसवाश , बॉडी लोशन , डिओडरंट, हैरजेल, सनस्क्रीन क्रीम, गोरा होने की क्रीम इत्यादि।
बच्चों का होर्लिक्स, बच्चों की माँ का अलग पापा का अलग।
दूध तो अपने आप ही शक्ति की परिभाषा है भाई इसकी शक्ति कोई सुपलेमेंट कैसे बढ़ा सकता है जबकि ये खुद दूसरे सप्लीमेंट्स की शक्ति बढ़ा सकता है।
साँस की बदबू दूर करने के लिए सिर्फ ब्रश काफी नहीं माउथ वाश से कुल्ले करना जरुरी है।
हमारे बुजुर्ग तो केवल नीम या किसी दूसरे पेड़ की दातुन करते थे और उनके दांत कोलगेट वालों से बहुत ज्यादा अच्छे होते थे। अगर किसी भाई के दांतों में कोई दिक्क्त है तो वो अब दातुन करके देखे।
खाने के लिए चिप्स, कुरकुरे, पिज़्ज़ा बर्गर चाहिए।
इतना सब खुद करते हैं और दोष सरकारों को देते हैं।
सोचकर सोचो फिर कहना क्या कर रहे हैं गलती किसकी है।
साधारण जीवन सैली से जहाँ एक परिवार का खर्चा आठ से दस हज़ार में चल सकता है वही आधुनिक जीवन सैली से चालीस हज़ार में खर्च चल पायेगा वो भी बड़ी मुश्किल से।
हरेंद्र सिंह चौधरी
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