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पुलिस वाले की ज़िंदगी

"चौबीस घंटे की ड्यूटी, बदमाशों से निपटने का दबाव, त्योंहार भी कभी अपने परिवार के साथ नहीं मना पाते आदि आदि"
ऐसी है हमारे पुलिसवालों की ज़िंदगी। इतना दबाव और शिद्दत से नौकरी करने के बाद भी बहुत कम देखने को मिलता है कि कभी किसी ने इनको दुआ दी हो। क्यों भाई क्या इनके दिल नहीं होता ?
हमारे देश में तमाम ऐसी मुठभेड़ हुई हैं पुलिस और बदमाशों के बीच जिनका खूब हो हल्ला मचा है लेकिन एक भी ऐसी मुठभेड़ नहीं है जिसमे कोई पुलिस की तरफ से बोलने वाला हो चाहे इशरत जहाँ का मामला या म.प. में नौ सिमी आतंकियों को मारने का मामला।  कभी खड़ा नहीं हुआ इनके लिए।
सब जानते थे कि मध्य  प्रदेश में सभी नौ के नौ हार्डकोर आतंकी थे पर नहीं ऊँगली पुलिस वालो पर ही  उठेगी।
तमाम ऐसे संघठन हैं जो समाज के लिए काम करते हैं जैसे मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, भ्र्ष्टाचार निरोधक तंत्र इत्यादि। जो शायद आपने काम बखूबी निभा भी रहे होंगे। लेकिन अगर बात पुलिस की आती है तो सब हाबी हो जाते हैं।
एक अपराधी जो पिछले कई सालों से अपराध की दुनिया में है।  जिसके लिए अपराध कोई मनोरंजन का साधन है। कई हत्या कर चुका है यदि वो अपराधी किसी मुठभेड़ में पुलिस के हाथों मारा जाता है तो मानवाधिकार संगठन जाग जाता है जो उस अपराधी के किये हुए अपराधों पर सोया हुआ था। अगर पुलिस का कोई बहादुर सिपाही भी अपनी शहादत दे देता है फिर भी मानवाधिकार की नजर में पलड़ा अपराधी का ही भरी रहेगा। जैसा पिछले कई वर्षों से कश्मीर में हो रहा है।
दूसरा दबाव बनता है जाति का जैसा राजस्थान में गैंगस्टर आनंद पाल के एनकाउंटर के बाद देखने को मिला।  एक गैंगस्टर पुलिस कस्टडी से भाग जाता है उसके बाद ताबड़ तोड़ वारदातों को अंजाम देता है, अपने ठिकाने को इस तरह से बनवाता है कि कभी पुलिस से मुठभेड़ हो तो किले की तरह काम करे।  वही गैंगस्टर हमारे कुछ बहादुर पुलिस वालों के साथ मुठभेड़ में मारा जाता है तो पूरा राजस्थान जल उठता है। उसकी जाति के लोग नंगा नाच नाचते हैं सड़कों पर। क्यों ? क्या हमारा कोई अपराध जाति देखकर करता था क्या वो ? नहीं। केवल बनाया हुआ प्रोपेगंडा था।
राजनितिक दबाव बुरी तरह से पुलिस तंत्र को खोकला किये पड़ा है। नीचे से ऊपर तक दबा कर रखा हुआ है। वोट के लालच में हमारे राजनेता इस कदर डूबे हुए हैं कि किसी की भी शिफारिश कर देते हैं चाहे कोई अपराधी हो, आतंकी हो या शरीफ आदमी। इन्हे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता इशरत जहाँ को बिहार की बेटी बताने में।
मीडिया भी इस तरह से पेश आती है जैसे अपराध केवल पुलिस वाले ही करते हैं। पुलिस की गुंडागर्दी, पुलिस वाला गुंडा , वर्दी में हैवान और पता नहीं क्या क्या ब्रेकिंग न्यूज़ आती है जब कोई किसी अपराधी को सजा मौक ए वारदात पर ही दे देते हैं।
एक और दूसरा नाम है भ्र्ष्टाचार का जो पुलिस वालों का पर्याय बन चुका है, में मानता हूँ कि भ्र्ष्टाचार पुलिस महकमे में है पर यदि पुलिस वालों के अधिकार उन्हें दे दिए जाएँ तो ये कुछ हद तक कम होगा।
कुछ जनता को भी सहयोग करना होगा। अगर हम कोई नियम ही नहीं तोड़ेंगे तो किसी की हिम्मत नहीं कि वो घूस की उम्मीद करे हमसे।
सोचना होगा कुछ पुलिस वालों के लिए भी।
हम आराम से अपने घर में सोते हैं इनकी बदौलत।  इज़्ज़त देनी होगी क्युकी ये भी दिल रखते हैं।
जला देने वाली गर्मी हो या हाड़ कपा देने वाली सर्दी , पर ये कभी हड़ताल पर नहीं जाते।
सोचो कभी पुलिस वालों ने हड़ताल कर दी तो क्या होगा?
कभी पुलिस वाले ड्यूटी से मॉस बंक पर चले गए तो क्या होगा ?

सोचना जरूर।

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