नगर निकाय चुनाव में विजयी प्रत्याशियों के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान मेरठ और अलीगढ़ में वंदे मातरम को लेकर खूब हंगामा हुआ। मेरठ में तो वंदे मातरम गान के समय नवनिर्वाचित महापौर जहां अपनी कुर्सी तक से नहीं उठीं वहीं उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने नारेबाजी भी की। अलीगढ़ में बवाल इतना बढ़ा कि महापौर की गाड़ी पर पथराव तक हो गया। पुलिस ने किसी तरह भीड़ को तितर-बितर कर समारोह सम्पन्न करवाया। इस तरह बीता था शहर की सरकार का पहला दिन। वंदे मातरम का विरोध ठीक नहीं। देश बड़ा होता है। वंदे मातरम को विरोध का माध्यम बनाना उचित नहीं कहा जा सकता। इससे समाज में सद्भाव की खाई और चौड़ी होगी। राजनेताओं को भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सबसे पहले राष्ट्र के बारे में विचार करने की जरूरत है। यह बहुत अच्छी बात है कि विवाद के अगले ही दिन बसपा प्रमुख ने वंदे मातरम को अपना समर्थन दे दिया। इससे उनकी पार्टी में सकारात्मक संदेश जाएगा और कार्यकर्ता भी आइंदा राष्ट्रीय मुद्दों पर संयम बरतेंगे।
परंतु इस प्रकरण का दूसरा पक्ष भी है। यह चिंता वाजिब है कि पक्ष-विपक्ष में जब पहले ही दिन इतनी कड़वाहट हो गई तो शहर के विकास कार्यो को लेकर आगे वे लोग कितना एकराय हो सकेंगे। राजनीति करने वाले एक दूसरे का विरोध तो करेंगे ही लेकिन, विरोध जब इस तरह का हो तो यह आशंका बलवती होती है कि शहर अगले पांच वर्ष भी विभिन्न समस्याओं का शिकार बना रहेगा। वैसी ही टूटी फूटी सड़कें रहेंगी, उसी तरह नालियां चोक रहेंगी और वैसे ही बिना पार्किंग के इमारतें बनती रहेंगी। धूल और धुएं के कारण बीमार उसी तरह अस्पताल पहुंचते रहेंगे और नगर निगम पहले की तरह लगभग निष्क्रिय संस्था बने रहेंगे। नगर निगमों को यदि ठीक काम करना है तो राज्य सरकार को उनके अधिकार देने होंगे लेकिन, यह काम होगा कैसे? इसके लिए महापौरों में जो एकजुटता चाहिए वह तो अभी भावनात्मक विषयों में जाया हो रही है। सच यह है कि जनता को अगर काम चाहिए तो उसे अपने पार्षद और महापौर पर दबाव बनाना सीखना होगा।
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