इस्लामी कट्टरपंथी गुटों की ओर से हाल में हुए बर्बर, अमानवीय हमलों ने दुनिया को हिला दिया है। भयभीत विश्व जब कारणों की पड़ताल कर समाधान खोजने का प्रयास कर रहा है, तो कई लेख सामने आए हैं। कई लोग ‘मध्यमार्गी मुस्लिमों’ की भूमिका पर जोर देते हैं। मुस्लिमों का वह शिक्षित व आधुनिक तबका, जिसने चुप्पी साध रखी है या इस सबमें ज्यादा मुखरता से सामने नहीं आया है। हालांकि, यह इतना आसान नहीं है। समाधान की तलाश में यह महत्वपूर्ण है कि किसी वर्ग को दोष नहीं दिया जाए। पहला कदम तो मध्यमार्गी मुस्लिम के दृष्टिकोण को समझना।
जरा सोचें। आप किसी धर्म और उसके पवित्र ग्रंथों को सम्मान देते हुए पले-बढ़े हैं। रीतियों व परंपराओं के साथ आपको बहुत-से सकारात्मक मूल्यों को स्वीकार करना होता है। यदि पूछा जाए कि आपका धर्म आपको क्या सिखाता है? करुणा, ईमानदारी, नम्रता, प्रेम, सत्यनिष्ठा, उदारता ऐसी कुछ बातें आपके मन में आती हैं। आप तार्किक और वैज्ञानिक सोच के व्यक्ति हैं और इसके बाद भी धर्म को अपने जीवन में महत्वपूर्ण स्थान देते हैं, क्योंकि यही तो आपको मानवता सिखाता है, बेहतर व्यक्ति बनाता है और हमेशा सकारात्मक बनाए रखता है।
इस पृष्ठभूमि में लोगों के छोटे समूह की कल्पना करें, जो आपकी तरह के ही मज़हब के होने का दावा करता है, लेकिन नफरत और हिंसा फैलाता है। वह उसी धर्म की रक्षा करने का दावा करता है, जिसे आप प्रेम करते हैं, सम्मान देते हैं, लेकिन उसके कामकाज से आपकी अंतर्चेतना बिल्कुल सहमत नहीं होती। हाशिये पर पड़ा यह समूह विरोधाभास है। यह बात तो उसकी करता है, जिसे आप प्रेम करते हैं, लेकिन काम ऐसे करता है, जो आपको पसंद नहीं हैं। इनके कामों में छोटे बच्चों सहित मासूमों की हत्या, महिलाओं के साथ पाशविक व्यवहार, बम विस्फोट करना या आम लोगों पर गोलीबारी करना शामिल हो सकता है। जल्दी ही यह गुट सुर्खियां बटोरने लगता है। आपका धर्म आतंक, घृणा, असहिष्णुता और हिंसा से जोड़ दिया जाता है। अन्य धर्मों के लोग चाहे इसे कहें नहीं पर आपके प्रति उनके पूर्वग्रह को आप महसूस कर सकते हैं। हर घटना के साथ आपका धर्म और दागदार होता जाता है। आप इस सारी झंझट को टालकर मध्यमार्गी के रूप में अपना सामान्य जीवन जीते हैं। जल्द ही आपको भी दोष दिया जाने लगता है। आपको चुप रहने के लिए दोषी ठहराया जाता है। आरोप लगता है कि आप आतंकियों से सहानुभूति रखते हैं। आप पर तोहमत लगाई जाती है कि आप इतना शोर नहीं मचाते कि यह छोटा-सा समूह अपनी हरकतें बंद कर दे।
दुर्भाग्य से दुनिया में बहुसंख्यक मुस्लिमों के एक विशाल तबके का यही हश्र है। ‘मध्यमार्गी मुस्लिम’ या ‘शांतिप्रिय मुस्लिम’ असहाय होकर देखता रहता है कि एक तरफ तो थोड़े से कट्टरपंथी धर्म की छवि खराब करते हैं तो दूसरी तरफ गैर-मुस्लिम उन पर कुछ न करने का आरोप लगाते हैं। ऐसे में मध्यमार्गी मुस्लिम क्या करें? इसका जवाब आसान नहीं है। शिक्षित, आधुनिक मुस्लिम पर आरोप लगाना आसान है, जैसे धर्म के नाम पर चल रही बेिदमाग हरकतों को खत्म करना उनके हाथों में है। हालांकि, यदि हम उनकी जगह होते तो हमें अहसास होता कि हमारे विकल्प बहुत सीमित हैं।
भगवान न करे, मान लो कि कट्टरपंथी हिंदू गुट के पास लाखों डॉलर होते हैं। दर्जनभर आधिकारिक रूप से घोषित हिंदू राष्ट्र होते। इन राष्ट्रों के शासक कट्टरपंथियों का समर्थन कर रहे होते और ये हिंसा की अति करने में भी नहीं घबराते तो ऐसे में आधुनिक, उदारवादी, शिक्षित या दूसरे शब्दों में ‘मध्यमार्गी हिंदू’ क्या करता? ऐसे में लगता तो यही है कि मध्यमार्गी इस सबसे दूर ही रहता अौर अपनी जिंदगी जीता रहता। शांति से परिवार का पालन-पोषण करता। इसका मतलब यह तो नहीं कि मध्यमार्गी हिंदू कट्टरपंथी गुट का समर्थक होता या स्वभाव से ही पिछड़ा होता या किसी बात की परवाह नहीं करता। नहीं ऐसी बात नहीं। उसे परवाह है और ऐसी बातें उसे बहुत विचलित करती हैं। हालांकि, खुद को संरक्षित रखने की स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति बीच में आ जाती है और कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त न करना, एकमात्र रास्ता नजर आता है। लाखों मुस्लिमों के साथ यही हो रहा है, जो दूसरों की तरह आतंकवादी घटनाओं से विचलित होते हैं। वे अपने मज़हब को प्यार करते हैं और इसलिए वे अल्लाह के साथ अपना अलग संबंध बनाकर इन घिनौनी हरकतों से खुद को संरक्षित रखते हैं। बड़ा सवाल यह है कि किया क्या जा सकता है? हम उन करतूतों को खत्म करने के लिए क्या करें, जिन्हें मध्ययुगीन, बर्बर कहा जा सकता है, फर्क इतना ही है कि वे 2014 में घट रही हैं?
सबसे पहले तो हमें आबादी के एक वर्ग को दोष देना बंद करना होगा। बात किसी धर्म विशेष की नहीं है। यह किसी धार्मिक ग्रंथ की बात भी नहीं कि उसमें ज्यादा हिंसा की पैरवी की गई है, जैसा कि कुछ विश्लेषक इशारा करते हैं। व्याख्याकार के इरादे के अनुसार सारे धर्म ग्रंथों की भिन्न तरीके से व्याख्या की जा सकती है। बाइबल में दया व करुणा की शिक्षा दी गई है, लेकिन इसमें काफी हिंसा भी है। गीता में कहा गया है कि पवित्र उद्देश्य के लिए युद्ध लड़ा जाना चाहिए और इसे भी हिंसा का औचित्य ठहराने के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि कट्टरपंथियों के लिए ‘पवित्र उद्देश्य’ फिसलनभरी अवधारणा हो सकती है। इस तरह की व्याख्या इसलिए नहीं होती, क्योंकि हिंदू कट्टरपंथी समूहों के पास उतनी ताकत नहीं है जैसी इस वक्त दुनियाभर में फैले मुस्लिम कट्टरपंथी गुटों के पास है।
मुद्दा किसी खास मज़हब या किसी खास धार्मिक ग्रंथ का नहीं है। मुद्दा किसी धर्म विशेष के कट्टरपंथी गुटों का आर्थिक, सैन्य, मीडिया और राजनीतिक ताकत हासिल करना है। जैसे भी संभव हो उनसे यह ताकत छीननी होगी। ताकत की हर किस्म के लिए भिन्न रणनीति आजमानी होगी। इसके लिए सारे राष्ट्रों व धर्मों से समझदार लोगों को एकसाथ आना होगा। यह ऐसा मुद्दा है, जिससे संयुक्त राष्ट्र और नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) को मिलकर निपटना चाहिए। यह ऐसा मुद्दा है, जिसके लिए सभी धर्मों के संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन की जरूरत है और जिसे सारे विश्व नेताओं का समर्थन प्राप्त हो। अचरज की बात है कि फिलहाल दुनिया में ऐसी कोई बड़ी संस्था नहीं है, जो सारे धर्मों को एकजुट करती हो और सबको समान रूप से प्रभावित करने वाले मुद्दों से निपटती हो।
ये सब मौजूदा दुनिया से की गई बहुत बड़ी मांगें हैं। हालांकि, सबसे बड़ी समस्याओं में से एक कट्टरपंथी आतंकवाद की समस्या को खत्म करने में वक्त लगेगा। मानवीय स्तर पर हमने दुनिया के धर्मों को शीर्ष पर एकजुट करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए हैं। वक्त अा गया है कि हम ऐसा करें।
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