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Showing posts from September, 2018

वोटर भेड़ ही बने रहे तो ऊन के साथ चमड़ी भी उधेड़ लेंगे राजनीतिक दल

राजस्थान चुनाव की दस्तक के साथ हवा में उछल रहे नारों-जुमलों ने एक बार फिर मधु लिमये की बात याद दिला दी- 'जनता उस भेड़ की तरह है जिसकी चमड़ी पर से हम राजनीतिक दल वोटों की ऊन काटते हैं। ऊन काटे तब तक तो ठीक, लेकिन कुछ दल चमड़ी तक काट लेते हैं।' यहां भी राजनीतिक कुचक्र से बचाने की भावना भले ही हो, लेकिन मतदाता को भेड़ कहा गया। छह दशक की चुनावी यात्रा में यह साफ हो गया है कि राजनीतिक दल वोटर को क्या मानते हैं। जीत की जुगत के लिए हर बार बुनते हैं जुमले-नारे। गरीबी हटाओ, सिंहासन खाली करो, शाइनिंग इंडिया, बच्चा-बच्चा राम का.. जैसे नारे और उनका हश्र प्रमाण है कि राजनीतिक विचारधाराएं मृतप्राय: हो चुकी हैं। चुनावी सभाओं में साम्यवाद, समाजवाद, धार्मिक सहिष्णुता जैसे मुद्दों पर होने वाली बातें इतिहास बन गई है। उनकी जगह अब है- छद्म राष्ट्रवाद, धर्म-संप्रदाय, समुदाय में ध्रुवीकरण के जरिये पैठ बनाने के प्रयास। जो दल जिस शिद्दत से इन भावनाओं को भुना सका, धन-बाहुबल का बेहतर मिश्रण कर सका, वह सदन के हां-पक्ष में पहुंचा। बात जब राजस्थान विधानसभा की हैं तो हालात एकांतरा बुखार जैसी है। ऐसा बु...

अनुच्छेद 35ए, जम्मू-कश्मीर में अलग समुदाय का निर्माण; आखिर एक ही देश में इतनी संवैधानिक विषमता क्यों?

संविधान के कुछ जानकार कश्मीर के अलगाववाद के लिए अनुच्छेद 370 से अधिक अनुच्छेद 35ए को जिम्मेदार मानते हैं। अनुच्छेद 35ए संविधान का एक अदृश्य और रहस्यमय भाग है। यह संविधान के मूल पाठ में शामिल नहीं है। इसे परिशिष्ट के रूप में जोड़ा गया है, लेकिन यह जम्मू-कश्मीर राज्य की शासन योजना का आधार स्तंभ है। संविधान का मूल उद्देश्य देश को एकजुट करना होता है, किंतु इसकी भूमिका इसके उलट है। यह जम्मू-कश्मीर में एक अलग समुदाय का निर्माण करता है जिन्हें स्थाई नागरिक कहा जाता है और केवल उन्हें ही राज्य सरकार को चुनने से लेकर संपत्ति खरीदने का अधिकार हासिल है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि संविधान के इतने महत्वपूर्ण संशोधन में संसद की कोई भूमिका नहीं थी। न तो उसे सदन के पटल पर रखा गया और न ही उस पर बहस या मतदान हुआ। इसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 35ए में उल्लिखित विषयों पर बनाए गए कानून भारत के संविधान के अनुरूप होने जरूरी नहीं हैं। उनका उल्लंघन भी हो सकता है और अंतर्विरोध होने पर भारत के संविधान की जगह इन कानूनों को मान्यता दी जाएगी। इस अधिकार के तहत विधानसभा को जम्मू-कश्मीर के स्थाई नागरिकों की परिभाषा त...

जानिए, क्यों चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दल चंदा लेना पसंद नहीं कर रहे हैं

राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे को पारदर्शी बनाने और राजनीति में कालेधन के इस्तेमाल पर लगाम लगाने के इरादे से शुरू किए गए चुनावी बांड की खरीद के आंकड़े यही बयान कर रहे हैं कि उनसे अभीष्ट की पूर्ति शायद ही हो। यह उत्साहजनक नहीं कि चुनावी बांड के जरिये राजनीतिक दलों को चंदा देने का सिलसिला गति पकड़ता नहीं दिख रहा है। अभी तक करीब 470 करोड़ रुपये के कुल 1062 बांडों की ही खरीद हुई है। जब माना यह जा रहा था कि समय के साथ चुनावी बांडों के जरिये चंदा देने की प्रवृत्ति बढ़ेगी तब संकेत यही मिल रहे हैं कि उसमें कमी आ रही है। चुनावी बांड की खरीद के लिए अभी तक चार बार दस-दस दिन की समय अवधि घोषित की जा चुकी है, लेकिन इस दौरान खरीदे गए बांडों की संख्या के साथ उनकी राशि भी घटती दिखी। पहले चरण यानी मार्च में जहां 222 करोड़ रुपये के 520 बांड बिके वहीं चौथे चरण यानी जुलाई में लगभग 32 करोड़ रुपये के मात्र 82 बांड। यह आंकड़ा तो यही रेखांकित कर रहा है कि लोग चुनावी बांडों से चंदा देने में कतरा रहे हैं। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि राजनीतिक दल ही इस तरीके से चंदा लेना पसंद नहीं कर रहे हैं। यदि...